अभिव्‍यक्ति उत्‍सव के तीन दिन-सात रंग

यहां अवसर था सुर, संगीत, कथा, सिनेमा, साहित्‍य, समाज और सरोकारों के नये विचारों को सुनने समझने और आत्‍मसात करने का तो मौका था अपनी आवाज को परवाज देने का भी। दैनिक जागरण संवादी के अभिव्‍यक्ति उत्‍सव के संग सतरंगी रंग बिखेरने और उनकी शोभा समेटने का मौका भी। लखनऊ में चले तीन दिवसीय इस महोत्‍सव में सबसे खास बात रही श्रोता-वक्‍ता के एकरस संवाद की। जहां कभी श्रोता मंच पर होता तो मंचासीन श्रोता की शक्‍ल में और कभी श्रोता मंचासीन होता और मंचासीन श्रोता के रंग में। कबीरदास का यह दोहा चरितार्थ हो रहा था-श्रोता तो घर ही नहीं, वक्‍ता बकै सो बाद/ श्रोता वक्‍ता एक घर, तब कथनी को स्‍वाद।

अदब के शहर लखनऊ ने अभिव्‍यक्ति के अनेक शिखर देखें हैं। अभिव्‍यक्ति यहां अपने मुखर स्‍वरूप में रही है। कथक का घराना बना यह शहर तो अनेक विधाओं की शीर्ष स्‍वीकृतियों का साक्षी भी, लेकिनन ‘संवादी’ के रूप में इस शहर ने नई पहचान और मील के पत्‍थर रचे। संवादी का चौथा संस्‍करण इस शहर के लिए खास रहा। ऐसे विस्‍तृत आयोजन अब तक देश की राजधानी में ही सुनने में आये हैं जहां तीन दिनों में इतने सत्रों में और इतने रंगों की बात हुई हो। दो दर्जन से अधिक सत्रों में सौ के करीब पहुंचते वक्‍ताओं और पूरे प्रदेश की भागीदारी का ऐसा आयोजन लखनऊ में पहले कभी नहीं हुआ। आयोजन के बाद यह बात पूरे शहर ने एक स्‍वर में स्‍वीकारी।

दरअसल, दैनिक जागरण संवादी का यह संस्‍करण कई मायनों में खास रहा। इसमें विचारों के मंथन से कई नायाब रत्‍न मिले। पहले दिन ही सात सत्रों में अभिव्‍यक्ति के अनेक रंग से रूबरू हुआ शहर। पहले दिन अवध की खोती विरासत पर खास चर्चा हुई तो ‘साहित्‍य में राष्‍ट्रवाद’ विषयक चर्चा पर भी गरमागरम बहस हुई। मसला था राष्‍ट्रवाद के साहित्‍य से संबंध का लेकिन मार्क्‍सवादी विचारधारा की सुई चुभोकर प्रो जगदीश्‍वर चतुर्वेदी ने लखनऊ वालों को भड़का दिया। मंच पर विराजमान राष्‍ट्रवादी पत्रकार और चिंतक बलदेव भाई शर्मा, अरुण कमल और नीरजा माधव ने तो सधी टिप्‍पणी दी लेकिन जब श्रोताओं के सवालों की झड़ी लगी तो जगदीश्‍वर चतुर्वेदी उलझते ही गए। श्रोताओं, दर्शकों से भरे भारतेंदु नाट्य अकादमी सभागार में पहले दिन ही बहस चरम छूने लगी। मंच पर नीरजा माधव व बलदेव भाई ने जब साहित्‍य को राष्‍ट्रवाद का प्रथम पोषक और दादा-नानी के किस्‍सों के साहित्‍य को भी उससे जोड़कर अपनी बात रखी तो कोलकाता से आये प्रोफेसर जगदीश्‍वर चतुर्वेदी ने अचानक राष्‍ट्रवाद को विषाणु बताकर माहौल गर्मा दिया और वे श्रोताओं के बीच ‘लाइव ट्रॉलिंग’ का हिस्‍सा बन गए।

इस पहले उद्धाटन सत्र के तुरंत बाद ‘अवध की खोती विरासत’ पर चर्चा में जुटी सेलीब्रिटी लोकगायिका मालिनी अवस्‍थी ने न केवल विरासत के पुराने वैभव का खजाना खोला बल्कि उसे श्रोताओं-दर्शकों के बीच अपनी खूबसूरत आवाज में बांटा भी। मालिनी ने संस्‍कार गीतों में विवाह के दौरान गारी गाने की परंपरा का बड़ा खूबसूरत उल्‍लेख करते हुए बताया कि गारी की परंपरा रिश्‍तों की बर्फ पिघलाने के एक प्रयास के रूप में शुरू हुई। कन्‍या पक्ष को पूरे जीवन पर भ्‍ार सुनना होता है, गारी उसका पहले ही चुका लिया गया बदला है।

तीसरा सत्र ‘राजनीति, महिला और सेक्‍स’ लखनऊ के प्रबुद्ध वर्ग के लिए ऐसा विषय था जिस पर पहले कभी खुलकर चर्चा नहीं हुई थी, लेकिन जब हुई तो कांग्रेस की राष्‍ट्रीय प्रवक्‍ता प्रियंका चतुर्वेदी और सोशल मीडिया पर सर्वाधिक ट्रोल झेलने वाली समाजवादी पार्टी की महिला नेता पंखुड़ी पाठक ने बेबाकी से यह बात रखी कि राजनीति महिलाओं के लिए आज भी अनकन्वेंशनल पेशा है। समाज की सोच और घर पर परिवार के डर को तो छोडि़ए पार्टी के भीतर भी महिला नेताओं को एक अलग तरह का संघर्ष करना पड़ता है और अपनी ही पार्टी के लोगों की फब्तियों से मुकाबला करना होता है। पत्रकार राखी बक्षी के साथ बातचीत में प्रियंका चतुर्वेदी और पंखुड़ी दोनों ने माना कि पार्टी के भीतर का संघर्ष ज्‍यादा कड़ा है। खासकर उन महिलाओं के लिए जो किसी परंपरागत राजनीतिक परिवार से नहीं आतीं।

संवादी के पहले दिन के अन्‍य सत्रों में बड़े पर्दे पर छोटे शहरों की कहानियां विषय पर फिल्‍म लेखिका और ट्रैवलिंग राइटर अद्वैता काला, पंकज त्रिपाठी की बातचीत और सेलीब्रिटी राइटर अश्विन सांघी के सत्र में युवा लेखकों को काफी कुछ सीखने को मिला। खासतौर पर अश्विन सांघी ने लेखन, मार्केटिंग और सफलता के जो टिप्‍स दिये वह उदीयमान व नए लेखकों के लिए मील का पत्‍थर साबित हुए। इस दिवस के अंतिम सत्र में दास्‍तानगोई विधा के नवीन प्रयोगों से रूबरू हुआ शहर। इसें उर्दू की काव्‍यात्‍मक पंक्तियों से महाभारत का गान खास आकर्षण रहा।

संवादी के दूसरे दिन पंडित छन्‍नू लाल मिश्र का सान्निध्‍य लखनऊवालों के लिए खास बन गया। खास तौर पर तब जब शास्‍त्रीय संगीत की शीर्ष हस्तियों में शुमार अप्‍पा जी यानी गिरिजा देवी हमारे बीच नहीं हैं। संहारक की प्रबल लोक छवि के विपरीत शिव की एक मान्‍यता संगीत के स्रोत की भी है।शास्‍त्रीय संगीत के पुरोधा पंडित छन्‍नूलाल मिश्र ने शिव के इसी स्‍वरूप को अपने शब्‍दों के पुष्‍प अर्पित करते हुए उन्‍हें स्‍वर और लय का रचयिता तो कृष्‍ण को उसका प्रचारक बताकर संगीत के आध्‍यात्मिक पक्ष का साक्षात्‍कार कराया। पंडित जी ने न केवल टिप्‍पणियों बल्कि आवाज की लरज-गरज के साथ श्रोताओं को भीतर तक संगीतमय कर दिया। ठेठ बनारसी पंडित छन्‍नूलाल मिश्र,  सुनंदा शर्मा के साथ लता सुर गाथा के लेखक यतीन्‍द्र मिश्र की बातचीत से शुरू हुई तो रसिक श्रोताओं से लेकर संगीत की पाठशाला तक गई। सुनंदा शर्मा ने श्रोताओं और आज के संगीतकारों के शाश्‍वत शास्‍त्रीय संगीत का सिरा छोड़कर क्षणिक लोकप्रियता की ओर भागने के लिए ‘समय की कमी को जिम्‍मेदार ठहराया तो पंडित जी ने बेबाकी से ऐसे कलाकारों को कलाबाज से अधिक कुछ मानने से इन्‍कार कर दिया। सत्र में ठुमरी की ठुमक और दादरा की नजाकत पर भी हुई। छन्‍नूलाल मिश्र ने ठुमरी को परिभाषित करते हुए कहा कि ठुमकते हुए बोलों का उपयोग हो तो वह है ठुमरी। उन्‍होंने ठुमरी, दादरा और ख्‍याल के प्रकारों, मधुरता और लोचकता को गाकर सुनाया। पंडित जी ने विलंबित ठुमरी . . ना ही परे मो का चैन और मसाने की होली गाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्‍ध कर दिया। सुनंदा शर्मा ने दादरा को ठुमरी का रिदमिक फार्म बताते हुए बनारस के दादरा में भाव पक्ष की बहुत प्रबलता को स्‍पष्‍ट किया। सुनंदा शर्मा ने ठुमरी के लयात्‍मक स्‍वरूप दादरा . . .गंगा रेती पे बंगला छवा दे मोरे राजा आवे लहर जमुनी की गाकर संगीत प्रेमियों को आत्‍म और अध्‍यात्‍म की अनूठी दुनिया में पहुंचा दिया।

दूसरे सत्र ‘नई वाली हिंदी के धुरंधर’  में युवा लेखक दिव्‍य प्रकाश दुबे व सत्‍या व्‍यास ने हिंग्लिश में लेखन को पठनीयता के संकट और लेखन के बीच पुल बनाने की अनिवार्य विवशता के रूप में प्रस्‍तुत किया तो हिंदी की चिंता करने वाले भड़क उठे। ऐसा मौका भी आया जब हिंदी की चिंता उठा रहे वरिष्‍ठ पत्रकार राहुल देव से बातचीत में इन युवा लेखकों ने भड़ककर यह घोषणा कर दी कि ‘यदि दो लेखकों के लेखन से हिंदी को खतरा है तो ऐसी भाषा को खत्‍म हो जाना चाहिए।’ इन युवा लेखकों की भावना यह बताने की थी कि वह जो लिख रहे हैं, उससे हिंदी को खतरा नहीं बल्कि पठनीयता के संकट से उबरना है, लेकिन हिंदी के गढ़ में श्रोता भड़क गए। लगा कि बहस अब आगे बढ़ना मुश्किल है लेकिन राहुल देव ने लेखकों की मंशा स्‍पष्‍ट कर सत्र को आगे बढ़ाया। निष्‍कर्ष यही था कि नई वाली हिंदी यानी हिंग्लिश लेखकों का हिंदी के प्रति बैर भाव नहीं बल्कि अपने पाठक तलाशने की विवशता है और यह लेखन व पठनीयता के बीच पुल बनाने का काम है।

सीता की छवि पर चर्चा के लिए लेखक अमीश त्रिपाठी, लोककथा की सशक्‍त हस्‍ताक्षर उषा किरण खान और उनके साथ बातचीत के लिए विभावरी थी। सभी वक्‍ता एकमत थे कि सीता की आज जो लोक छवि बनी है वह अस्‍सी के दशक में आये टीवी सीरियल और गोस्‍वामी तुलसीदास रचित राम चरित मानस के कारण है। वक्‍ता इस बात पर भी एकमत थे कि सीता एक एतिहासिक और सशक्‍त महिला थीं जिनके बारे में अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग मत हैं। देर शाम के सत्र में नीलेश मिसरा ने लाइव कहानी मौत से एक नई उभरती विधा से परिचित कराया। नीलिमा चौहान, रजनी गुप्‍ता व नाइश हसन द्वारा स्‍त्री विमर्श या यौन विमर्श पर चर्चा के साथ अंतिम सत्र में मुंबई के मुखातिब थिएटर ने हिंदी नाटक शैडो आफ ऑथेलो की शानदार प्रस्‍तुति दी।

तीसरे दिन भाषा के सवाल पर बड़े सवाल उठे। सवाल था कि हिंदी को धर्म विशेष से जोड़ने की कोशिश तो नहीं हो रही लेकिन मार्क्‍सवादी विचारक प्रोफेसर जगदीश्‍वर चतुर्वेदी ने इसे दूसरा रुख दे दिया। उन्‍होंने सवाल उठाया कि उत्‍तर प्रदेश में 60 फीसद युवा हिंदी विषय में क्‍यों फेल होते हैं, अवध में अवधी और बिहार में भोजपुरी क्‍यों नहीं पढ़ाई जाती। फिर जोड़ा कि भाषा तब तक नहीं बच सकती जब तक वह सभ्‍यता और संस्‍कृति से न जुड़े। यह रोचक चर्चा ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्‍तानी’ विषयक सत्र में हुई।

संवादी के समापन दिवस पर विधाओं का छूटता सिरा, दलित साहित्‍य में ब्राह्मणवाद पर चर्चा हुई तो मीडिया की बदलती भूमिका और वरिष्‍ठ साहित्‍यकार नरेंद्र कोहली की मौजूदगी में साहित्‍य में मिथक और यथार्थ पर भी चर्चा हुई। हिंदी, हिंदू, हिंदुस्‍तानी विषय पर चर्चा शुरू हुई तो मंच पर मौजूद प्रो जगदीश्‍वर चतुर्वेदी, दलित साहित्‍यकार भगवानदास मोरवाल, पत्रकार शाहिद सिद्दीकी व शायर शीन काफ निजाम की एक राय थी कि झगड़ा हिंदी या उर्दू का नहीं। जब हिंदी को धर्म से जोड़ने की बात हुई तो बात दूसरे संदर्भों पर मुड़ गई। बेहद बुनियादी सवाल उठा कि जब आज का युवा लवलेटर तक अपनी भाषा में नहीं लिखता तो भाषा बचेगी कैसे, बड़ा प्रश्‍न यह है। भाषा पर टेक्‍नोलॉजी के प्रभाव पर भी चर्चा हुई।

दलित साहित्‍य में ब्राह्मणवाद पर चर्चा करते हुए दलित साहित्‍यकार और चिंतक हरिराम मीणा, भगवानदास मोरवाल, शरण कुमार लिंबाले और टेकचंद इस बात पर सहमत दिखे कि दलित वैचारिकी से जुड़ा लेखन ही दलित साहित्‍य है, उसे कोई लिखे। विषय से हटकर भी चर्चा हुई और मीणा ने वर्चस्‍ववाद को ही ब्राह्मणवाद की संज्ञा से नवाजते हुए सामाजिक न्‍याय को आजादी के बाद का सबसे बड़ा झूठ करार दिया। कहा, दलित मतलब जाटव और पिछड़ा मतलब यादव समझ लिया गया। यही ब्राह्मणवाद है। संवादी का समापन स्‍वांग समूह द्वारा फैज, कबीर, पाश और बुल्‍लेशाह पर संगीतमय प्रस्‍तुति के साथ हुआ। साथ ही लखनऊवालों को दे गया अगले साल का इंतजार।

राजू मिश्र

संवादी 2017 – सतरंगी यादें

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