नई दिल्लीः वाणी प्रकाशन ने पुरानी दिल्ली के दरियागंज की विस्मृत साहित्यिक परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए 'दरियागंज की किताबी शामें' कार्यक्रम शुरू किया है. इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में डॉ प्रेमचन्द्र 'महेश' सभागार में 'आलोचना के परिसर: साहित्य का रचनात्मक प्रतिपक्ष' विषय पर परिचर्चा आयोजित की गई, जिसमें वरिष्ठ आलोचक प्रो गोपेश्वर सिंह से बजरंग बिहारी तिवारी ने संवाद किया. गोपेश्वर सिंह ने अपने संवाद में कहा कि आलोचना का जन्म ही लोकतान्त्रिक सपने के साथ हुआ है. लोकतन्त्र ने सत्ता की आलोचना की गुंजाइश दी और साहित्य में इसका विस्तार हुआ. आलोचना के अधिकार को हमने हासिल किया है और यह मामूली बात नहीं है. हमारा विश्वविद्यालय परिसर जैसा लोकतान्त्रिक हुआ करता था, अब उस पर भी संकट है. कालान्तर में हमने यह भी पाया है कि आलोचना दो ख़ेमों में बंट सी गयी है- एक को कला की चिन्ता है, दूसरे को समाज की. अपनी पुस्तक में मैंने कला और समाज के पार्थक्य को कम करने की कोशिश की है. मेरे मत से किसी भी मंच या विचारधारा का बहिष्कार नहीं होना चाहिए बल्कि संवाद का मार्ग खुला होना चाहिए. इसके बिना लोकतन्त्र की कोई भी वैचारिक लड़ाई संभव नहीं है.
उनका कहना था कि आलोचना को कृति के अन्तर्मन को पकड़ना चाहिए. जो आलोचना कृति का नया पाठ तैयार नहीं करती है, उसे अपने प्रारूप पर विचार करना चाहिए. सिर्फ़ सिद्धान्त कथन कहने वाली आलोचना रचनात्मक नहीं कही जा सकती है. गोपेश्वर सिंह ने आगे कहा कि साहित्य वकीली तर्कों का कारोबार नहीं, यहां हृदय पक्ष भी शामिल है. भावुकता और अति भावुकता में भी अंतर है. इस पुस्तक का नाम ही है आलोचना के परिसर, जिसका अर्थ ही है इसके कई दरवाज़े हैं. यहां नये लेखन के लिए भी प्रवेश द्वार है और वर्चुअल लेखन के लिए भी. एक प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि चाहे कोई कृति किसी भी माध्यम से आये, उसमें रचना तो होनी चाहिए.  क्या आज की रचना आलोचना से परे हो गयी है? बजरंग बिहारी तिवारी ने उनकी पुस्तक आलोचना के परिसर के हवाले से अस्मितावाद, कविता में मिथ कथन एवं सरकार पोषित संस्थाओं के संदर्भ में महत्वपूर्ण प्रश्न रखे. उन्होंने आलोचना के अस्तित्व पर आये संकट को रेखांकित किया. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक एवं आलोचक रामेश्वर राय ने कहा कि आलोचना के परिसर विशुद्ध आलोचना पुस्तक नहीं है बल्कि यहां हिन्दी भाषा का अपना आन्तरिक चौपाल विकसित है. यहां ज्ञान का आतंक नहीं, संवाद की आत्मीयता है. इस परिचर्चा कार्यक्रम में मुकेश मानस, श्यौराज सिंह बेचैन, ज्योतिष जोशी, अनुपम सिंह, राजेश चौहान, रजत रानी मीनू, ब्रजेश मिश्र, राजीव रंजन गिरि, नीलिमा चौहान, प्रवीण कुमार, सुनील मिश्र, रमेश ठाकुर, विपुल कुमार, अतुल सिंह, दीपिका वर्मा, सुशील द्विवेदी, नीरज मिश्र आदि उपस्थित थे. संचालन वाणी प्रकाशन की प्रधान संपादक रश्मि भारद्वाज ने किया.