–    आशीष कंधवे

 

और फिर मैं

खुद से  एक प्रश्न पूछता हूं

जब आप

अपने हाथों में अपना हाथ डालते हैं

तो आप स्वयं से प्रेम करते हैं

स्वयं के मित्र होते हैं

स्वयं से मिलते हैं

ये महसूस किया है कभी आपने …

 

जब मैं अपने साथ होता हूँ

मैं शांति से घिरा होता हूँ

ऐसा लगता है कि

एक हल्के सपने जैसा मेरा जीवन

प्रेम से गुजर रहा  है..!

 

लेकिन एक जीवंत दिल की धड़कन

मुझे जगाता रहता है

और पूछता रहता है

एक सवाल

ये प्रेम क्या होता है ..?

ये दोस्ती क्या होती है ..?

 

हाँलाकि,

मैं दिल से उतना साहसी नहीं हूं

पर फिर भी समझना चाहता हूँ

प्रेम का सामर्थ्य

मित्र और मित्रता का अर्थ

लिखना चाहता हूँ मित्र के लिए एक पत्र

और एक प्रेम-गीत

 

कवियों की भावना  मुझे प्रेरित नहीं करती

मैं आश्चर्य से भर जाता हूँ

मैं खुद को नहीं समझ पाता हूँ

मुझ में  ऐसे विचार कहां से आये

और मैंने

आखिरकार इस सवाल को जिंदा ही क्यों रखा

मुझे किसने  प्रेरित किया?

मित्र या प्रेम ?

 

पुनः

मैं अपने ही प्रश्न में उलझ गया हूँ

दरअसल,

जब मैं मित्र को नहीं देखता तो मेरा

प्रेम मरता है

और प्रेम करता हूँ तो

वो मित्र नहीं रहता

 

सच, मैं बिना किसी जानकारी के

मित्रता का दरवाजा खटखटा देता हूँ

और फिर..

मैं अपने विचार से दूर हो जाता हूँ

और फिर..

मैं कह सकता हूं

मैं समय के साथ होते हुए भी नहीं रहता

निर्लिप्त

 

जब तुम्हें नहीं देखता तो

मैं चिल्लता नहीं हूं

व्याकुल नहीं होता

रोता भी नहीं हूँ

क्योंकि,

मैं मेरे साथ होता हूँ

अपने हाथों में अपना हाथ लिए

शांत-स्थिर ।