भोपाल: मालिनी अवस्थी के कंठ में लोक की गूंज है. वे संस्कृति और प्रकृति समारोह में हिस्सा लेने भारत भवन पहुंची तो भारत भवन के पहले भीम बैठका गईं. शिलाओं पर उकेरे गए हजारों साल पुराने चित्रों को देखने, जो अब एक विश्व विरासत हैं. वे भोपाल के पुरखों के सबसे पुराने निशान हैं. जब न भाषा थी, न लिपि, न ग्राम थे, न नगर किंतु मनुष्य था और उसकी आंखों के सामने जो कुछ भी था, उसने चट्टानों में रंग भरकर उसके प्रमाण पीढ़ियों के संज्ञान के लिए छोड़े थे. वहां उन्होंने भीम बैठका का प्रसंग सुनाया और पहले ही गीत की पृष्ठभूमि में बहुत कुछ कह दिया. मालिनी अवस्थी ने कहा कि अवधी, भोजपुरी और मैथिली में विवाह की बेला में गाए जाने वाले गीतों में सबको न्यौतने की परंपरा है. एक ऐसा ही मंगल गीत जिसमें, सबको न्यौता दिया जा रहा है. देवता, पुरखे, सांप, बिच्छू, कोई क्रुद्ध परिजन जिसकी भृकुटियां अकारण तनी हुई हैं, सबको न्यौता. यहां तक कि गांव के उन खंडहर पड़े घरों को भी, जहां कभी कोई रहता था. भारत जहां बसता है, यह वही लोक है. इसी लोक में प्रवाहित परंपरा गीतों में सुनाई देती है, चित्रों में सुसज्जित हो उठती है और नृत्यों में उत्सव का रूप धर लेती है. सिर्फ चार दिन पहले की ही बात है. सौ करोड़ रुपए की लागत से शुद्धिकरण के बाद नए रूप में सुसज्जित हबीबगंज रेलवे स्टेशन की घर वापसी के प्रसंग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं आए और उसे रानी कमलापति को समर्पित किया. वह भी भोपाल के भूले-बिसरे पुरखों का ही स्मरण प्रसंग है, जिन्हें साजिश के तहत हाशिए पर गुमनाम छोड़ दिया गया था. रेलवे स्टेशन के साइन बोर्ड के इस संशोधन पर एक नया तीर भी दिमागों की संकरी गलियों में घूमा.
भोपाल में अपने पुरखों की इन भटकी हुई स्मृतियों का अधिकतम विस्तार बस तीन सौ साल तक खींचता है. याददाश्त के फ्यूज जब उड़े हुए होते हैं तो ऐसा ही अंधेरा आसपास फैलता है. बदली हुई पहचानें ओढ़े हुए भ्रम में खुद भी गिरी होती हैं और चाहती हैं कि बाकी भी इसी गर्त में आएं. हबीबगंज के संक्षिप्त भूल-सुधार जैसे निर्णय स्मृतियों के उड़े हुए फ्यूज को ठीक करने के प्रयास हैं, क्योंकि स्मृतियां देह के भस्म होने पर भी राख नहीं होतीं. तंतु मस्तिष्क में झनझनाते रहते हैं. मालिनी अवस्थी का भीम बैठका के चित्रों में अपने पुरखों को न्यौता अपनी स्मृतियों को तरोताजा रखना ही है. उड़े हुए फ्यूज न भीम बैठका में कुछ देखते और न नाम के एक दोस्त की हमलावर दोस्ती के पार उन्हें अपनी ही रानी उसके आसपास बसे अपने असल पुरखों का रचा-बसा संसार नजर आता, जिसकी राख पर खड़ी नई पहचानें नए फैशन सी इतराती हैं. एक देवी गीत मालिनी ने प्रस्तुत किया, जिसमें पूरी प्रकृति झांक रही है. देवी नीम के वृक्ष पर झूल रही हैं. इसमें औषधीय महत्व के उन सब वृक्षों का उल्लेख आता है, जिनके जड़, तना, पत्ती या फूल को हमने कोरोना काल में काढ़े के रूप में पानी में उबालकर पीया. तो हमारे पुरखे क्या अपने उपचार संबंधी अनुभवों के निचोड़ को गीतों में ढाल रहे थे? प्रकृति की पहुंच लगभग हर लोकगीत में है, जिसमें जमना के तीर हैं, बिंदिया चुराने वाली मछरिया है, हिरनी, कोयल, चिड़िया, कीचड़, कंकड़ सब कुछ. रंग के परिचय कहां से प्राप्त हुए? केसरिया, चम्पई, गुलाबी, सुरमई, आसमानी और धानी प्रकृति की ही प्रयोगशाला से तो आए. ये गीत हमारे अनाम पूर्वजों ने रचे और लोक की स्मृतियों में उतार दिए थे, वे सदियों पुरानी परंपरा बन गए. ( इंटरनेट मीडिया पर एक टिप्पणी)