कोच्चीः श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय कालाडी के हिंदी विभाग ने 'राष्ट्रीय हिंदी साहित्योत्सव' आयोजित किया, तो हिंदी साहित्य व कविता जगत की कई हस्तियां शरीक हुईं, जिनमें अरुण कमल, लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप, अरविंदाक्षण और जीतेंद्र श्रीवास्तव शामिल थे. आलोक रंजन ने इस आयोजन पर फोटुओं के साथ एक लंबी-चौड़ी पोस्ट भी सोशल मीडिया पर लिखी है. बहरहाल कविता सत्र में लीलाधर मंडलोई ने अपने कई संग्रहों के साथ ही हाल ही में प्रकाशित संकलन 'जलावतन' से भी कविताएं पढ़ीं. मदन कश्यप की कविताओं में आज के वर्तमान परिदृश्य की दुरावस्थाओं की गंभीर और कलात्मक प्रस्तुति दिखी. अरुण कमल ने दो कविताएं 'धार' और 'घोषणा' पढ़ी. 'अपना क्या है इस जीवन में/ सब तो लिया उधार/ सारा लोहा उन लोगों का/ अपनी केवल धार… अरविंदाक्षण की कविताएं स्थानीयता को रेखांकित करने वाली थीं, तो जीतेंद्र श्रीवास्तव की कविताएं व्यक्तिगत और समष्टिगत संसार की भावात्मक यात्रा करवाने वाली रहीं. इस कार्यक्रम में केरल के विभिन्न महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले हिंदी के विद्यार्थियों और शोधार्थियों ने भी अपनी कविताओं का पाठ किया. इस सत्र के अंत में भाषा के लैंगिक विभेद को उजागर करने वाली गंभीर कविता विश्वविद्यालय की हिंदी विभागाध्यक्ष शांति नायर ने पढ़ी.
कविता पाठ के बाद कविता से जुड़ी चर्चा का सत्र था. यह सत्र को वक्ताओं और श्रोताओं के सहकार वाला था. अरुण कमल ने संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी के संदर्भों के माध्यम से विवेचना करते हुए कविता लिखने वालों के लिए 'कविता से कविता बनती है, जैसे लौ से लौ निकलती है' की सोच से कविता लिखने की बात कही. उनके अनुसार आवेग के गहन क्षणों में भी कवि ध्वनि की खोज में रहता है, जो कविता के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है. मदन कश्यप ने ज्ञान के संबंध में दो अतिरेकवादी विचारों से बचने को कहा. एक धड़ा जो यह मानता है कि सारा ज्ञान विदेशी किताबों और भाषाओं में है और दूसरा धड़ा कहता है कि सारा ज्ञान हमारे भारत में ही निर्मित हुआ, इन दोनों ही प्रकार की बातों के बीच के संतुलन पर उनका ज़ोर था. राजनीति पर बात करते हुए उन्होने कहा कि 'सांप्रदायिक आदमी कभी राष्ट्रवादी नहीं हो सकता.' लीलाधर मंडलोई ने कहा कि 'कविताओं में अनिवार्यतः भाव का द्वंद्व होना ही है.' अरविंदाक्षण ने कविता में स्मृतियों पर बात की. जीतेंद्र श्रीवास्तव ने बेहतर कवि पर बात करते हुए कहा कि 'चित्तवृत्तियों के सूक्ष्मतम बदलावों को जो पकड़ सकेगा वही बेहतर कवि होगा.' इस सत्र में एक प्रश्न यह भी उठा कि आजकल फेसबुक पर बहुत से कवि हो गए हैं, तो कविता की गुणवत्ता का क्या होगा? उत्तर में अरुण कमल ने मैथिलीशरण गुप्त के भाई सियारामशरण गुप्त के एक निबंध का हवाला दिया, जिसमें वे कहते हैं कि उनके गांव में इतने कवि हैं कि कोई एक ढेला चलाए तो वह किसी न किसी कवि को ही लगेगा. मतलब हर दौर में ढेर सारे कवि रहे हैं और उनके छनकर आने की प्रक्रिया साथ साथ चलती रही है. इस सत्र के अंत में स्थानीय छात्रों ने भजन और ग़ज़ल की प्रस्तुति दी.