इंदौरः शरद जोशी अपने जमाने के ऐसे मशहूर व्यंग्यकार थे, जिनकी लेखनी की धार सियासत को हमेशा चुभती रही.  डॉ ज्ञान चतुर्वेदी के मुताबिक आमिर खान फिल्म 'लगान' की पटकथा शरद जोशी से लिखवाना चाहते थे. वह चाहते थे कि लगान का प्रत्येक डायलॉग लोक-जीवन की सुगंध लिए हुए देशज भाषा में हो. उन्हें जोशी का लिखा लापतागंज' बहुत पसंद था, 'लगान' में वह ऐसी ही रोचक, देशज व दिल को छू लेने वाली भाषा चाहते थे. किंतु शरद जोशी का तब तक निधन हो चुका था. आमिर ने फिर वरिष्ठ व्यंग्य लेखक केपी सक्सेना से यह काम कराया. इसी तरह शरद जोशी का जब निधन हुआ, तब वे लाखों रुपये के फिल्मी व अन्य प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे थे. उनके देहांत के बाद कई फिल्म निर्माताओं ने पैसा देने में आनाकानी की थी. यह बात शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे तक पहुंची. ठाकरे शरद जोशी के बड़े प्रशंसक थे. उन्होंने जिन-जिन लोगों पर शरद जी के पैसे बकाया थे, उन तक संदेश पहुंचाया कि 24 घंटे में बकाया पैसा जोशी जी के परिवार तक पहुंच जाना चाहिए. इसका असर यह हुआ कि अगले ही दिन सभी बकायेदार राशि शरद जोशी के परिवार को दे आए थे.
शरद जोशी की पुण्यतिथि पर व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने दैनिक जागरण के सहयोगी प्रकाशन नई दुनिया को इंदौर में और भी कई बातें बताईं. उन्होंने बताया कि शोले के जबर्दस्त हिट होने के बाद फिल्म निर्माता जीपी सिप्पी बहुत बड़े आदमी हो गए थे. फिल्म लेखक उनके साथ काम करने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे, लेकिन शरद जोशी अपनी ही तरह के व्यक्ति थे. जीपी सिप्पी एक फिल्म शरद जोशी से लिखवाना चाहते थे. बताया जाता है कि कुछ कारणों से शरद जोशी ने सिप्पी को यह कहते हुए मना कर दिया था कि मैं अंधेरी में रहता हूं और आप जुहू में. मैं इतनी दूर नहीं आ पाऊंगा. तब सिप्पी ने शरद के लिए अंधेरी में एक दफ्तर खुलवा दिया था. इसके बाद शरद जोशी ने उनके लिए फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी.  याद रहे कि राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित कृति 'और शरद जोशी' की प्रस्तावना में ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखा था, “शरद जोशी ने भारतीय व्यक्ति के मूल सामाजिक चरित्र के विराट को परे सरकाकर आधुनिक व्यावहारिकता के बहाने अपनी निम्नतर कुंठाओं को पालने-पोसने वाले भारतीय व्यक्ति के उद्भव की आहट काफी पहले सुन ली थी. उन्होंने देख लिया था जीप पर सवार होकर खेतों में जो नई इल्लियाँ पहुँचने वाली हैं वे सिर्फ फसलों को नहीं समूची राष्ट्र-भूमि को खोखला करनेवाली हैं. आज जब हम राजनीतिक और सामाजिक नैतिकता की अपनी बंजर भूमि को विकास नाम के एक खोखले बाँस पर टाँगे एक भूमंडलीकृत संसार के बीचोबीच खड़े हैं.