नई दिल्लीः केदारनाथ सिंह के निधन को अभी कोई बड़ा अरसा नहीं गुजरा है, पर उनकी जयंती पर उनकी उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी होनी चाहिए. केवल ट्वीटर पर उनके कुछ शिष्य, हिंदी अखबारों के कुछ ऑनलाइन संस्करण और कुछ हिंदी के शिक्षकों ने ही उन्हें याद किया. ऐसा क्यों है कि हिंदी का इतना बड़ा कवि केवल चंद लोगों की यादों में सिमट सा गया, कम से कम इस बार दिखा तो यही, जबकि उनकी रचनाओं ने एक समूचे वर्ग को छुआ, या उनकी बातें कहीं. सियासत, प्रशासन और लोक तो दूर खुद हिंदी समाज, साहित्यकारों या लेखकों ने भी उन्हें कोई खास शिद्दत से याद नहीं किया. जिन प्रकाशकों, प्रकाशन व्यवसाय से जुड़कर हिंदी की रोटी खा रहे लोगों, समर्थक लेखकों, कवियों ने उन्हें याद किया भी, उन्होंने भी ट्वीट करके अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर ली. हालांकि एकाध जगह उनके काव्यकर्म की चर्चा अवश्य हुई.
याद रहे कि केदारनाथ सिंह हिंदी और हिंदी कविता को जीने वाले सच्चे कवियों में शुमार होते रहे हैं. वह सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा तारसप्तक के कवि थे. उनका 'अभी बिल्कुल अभी', 'ज़मीन पक रही है', 'यहाँ से देखो', 'अकाल में सारस', 'उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ', 'बाघ', 'तालस्ताय और साइकिल' जैसे रचना संकलन काफी लोकप्रिय रहे. अपने जीवनकाल में केदारनाथ सिंह न केवल साहित्य अकादमी, भारतीय ज्ञानपीठ और व्यास सम्मान सेसम्मानित किए गए थे, बल्कि वह साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान, उसकी महत्तर सदस्यता से भी सम्मानित थे. हिंदी समाज व लेखन जगत को यह समझने की जरूरत है कि अगर केदारनाथ सिंह जैसे वरिष्ठ कवि का यह हाल है, तो आने वाला समय हिंदी जगत और उसके लेखकों के लिए कैसा रहने वाला है. शायद केदारनाथ सिंह अपने जीवनकाल में ही यह समझ चुके थे, तभी तो उन्होंने लिखा था, “मैं पूरी ताकत के साथ शब्दों को फेंकना चाहता हूं आदमी की तरफ यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा, मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूं वह धमाका जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा मैं लिखना चाहता हूं.“