लखनऊ: किताब उत्सव का एक सत्र आलोचक वीरेंद्र यादव से उनकी किताब ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता‘ पर चर्चा का रहा. प्रोफेसर सूरज बहादुर थापा ने उनसे बातचीत की. इस संवाद में वीरेंद्र यादव ने कहा कि प्रतिनिधित्व की समस्या अभी भी विकराल रूप में बनी हुई है.यह इस बात से हल  नहीं  होगी कि कुछ शीर्ष पदों पर दलित या आदिवासी पहुंच गए हैं. यह सिर्फ प्रतीकात्मक उपस्थिति है. प्रतिनिधित्व का सही हाल जानने के लिए हमको वास्तविक आंकड़ों के पास जाना होगा. इसी क्रम में उन्होंने श्रीलाल शुक्ल के लोकप्रिय उपन्यास ‘राग दरबारी‘ का जिक्र करते हुए कहा कि यह उपन्यास नेहरू युगीन जनतंत्र का भाष्य है. रेणु ने ‘मैला आंचल‘ को जहां पर खत्म किया था, ‘राग दरबारी‘ उसी बिंदु से शुरू होता है. ‘राग दरबारी‘ ने बहुत ही जमीनी स्तर पर भारतीय लोकतंत्र की विकृतियों को उजागर किया.

यादव ने कहा कि प्रेमचंद की ही तरह यशपाल ने भी अपनी कृतियों में आजादी के आंदोलन में अनुपस्थित तत्वों पर लगातार लिखा. उनका उपन्यास ‘झूठा सच‘ विभाजन पर लिखा गया बेमिसाल उपन्यास है. इस यथार्थ को विमर्श के रूप में न दर्ज कर उसकी संपूर्णता में रचता है. वे स्त्री अधिकारों पर लिखते हैं. लेकिन सही मायने में अगर देखा जाए तो आजाद भारत में सर्वाधिक प्रासंगिक वैचारिक लेखन राजेंद्र यादव का है. लोकतंत्र के विघटन के सवालस्त्रियों के सवालदलितों और आदिवासियों से जुड़े सवालों को हिंदी साहित्य के केंद्र में लाने का काम करते हैं. उन्होंने समतास्वतंत्रता को केंद्र में रखकर अपनी वैचारिकी रची और हिंदी साहित्य और उसकी संस्कृति पर गहरा असर डाला. स्थानीय अन्तर्राष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान में ‘किताब उत्सव‘ का आयोजन राजकमल प्रकाशन ने किया था.