नई दिल्ली: साहित्य अकादेमी के नौ दिवसीय ‘पुस्तकायन‘ पुस्तक मेले के अंतिम दिन, ‘अपने प्रिय लेखक से मिलिए‘ कार्यक्रम में उर्दू लेखक ख़ालिद जावेद, हिंदी लेखिका महुआ माजी और पंजाबी लेखक बलदेव सिंह ‘सड़कनामा‘ पाठकों से रूबरू हुए. अपनी लेखन-प्रक्रिया की चर्चा करते हुए महुआ माजी ने अपने उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला‘, जो बांग्लादेश के अभ्युदय की गाथा है, की थीम के बारे में बताया. उन्होंने कहा कि यह विभाजन तो हुआ था धर्म के नाम पर, लेकिन संस्कृति ने इसको अलग रूप दिया और यह स्थापित किया कि कई बार धर्म से ज़्यादा हमारा आचार-विचार, परिवेश और भाषा तथा संस्कृति महत्त्वपूर्ण होती है. अपने दूसरे उपन्यास ‘मरंग गोडा नीलकंठ हुआ‘, जो कि विकिरण और विस्थापन झेलते आदिवासियों की कथा के बारे में उन्होंने कहा कि मैं समाजशास्त्री हूं और चाहती हूं कि जो कोई भी व्यवस्था समाज को परेशान कर रही है उसे मैं लोगों के सामने लाऊँ. आगे उन्होंने कहा कि इन दोनों उपन्यासों में फैक्ट को फिक्शन में बदलने की बड़ी चुनौती थी, क्योंकि अगर मैं जानकारी को रोचक तरीक़े से नहीं लिखती तो शायद यह इतना पठनीय नहीं होता.
बलदेव सिंह ‘सड़कनामा‘ ने अपने जीवन के बारे में विस्तार से बताया और कहा कि वह एक अध्यापक की नौकरी छोड़कर अचानक ही एक ट्रक ड्राइवर बन गए और उस दौरान जो अनुभव उनको प्राप्त हुए उसको लिखकर अमृता प्रीतम को भेजा, जिसे उन्होंने बड़े सम्मान से छापा और फिर उसे शृंखला के रूप में 18 सालों तक छापा. उसके शीर्षक की लोकप्रियता से भी ‘सड़कनामा‘ नाम उनके उपनाम की तरह उनसे जुड़ गया और इसी नाम से वे विख्यात हो गए. उन्होंने अपने उपन्यास ‘लालबत्ती‘ की भी चर्चा की, जिसमें रेड लाइट एरिया की सच्चाइयों को लिखा गया है. साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत अपने पंजाबी उपन्यास जिसका हाल ही में हिंदी अनुवाद ‘ढा दूं दिल्ली के कंगूरे‘ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, के बारे में उन्होंने कहा कि मैं इतिहास के उन पात्रों पर लिखना चाहता था, जिन्हें नज़रअंदाज़ किया गया. इस उपन्यास का नायक दुल्ला भट्टी अकबर कालीन विद्रोही था. ख़ालिद जावेद ने कहा कि अपने लेखन के बारे में बात करना कुछ ऐसा है कि कोई पक्षी विज्ञानी पक्षी से पूछे कि उसने उड़ना कैसे सीखा और वह उड़ता कैसे है. उन्होंने कहा कि हम सबके दिमाग़ में कुछ आंतरिक दबाव होते हैं जिनके चलते हम लिखना शुरू करते हैं. मैं बचपन से ही लिखने की कोशिश करता था क्योंकि मेरे ददिहाल और ननिहाल में लेखन की रिवायत थी. मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और फिजिक्स में क्वांटम थ्योरी को पढ़ा तो लगा कि यह दुनिया तो बहुत रहस्यमय है और उसके बारे में कुछ भी स्थायी रूप से कहना संभव नहीं है. और जब मैंने इतिहास, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र आदि को जाना-समझा तो पाया कि इन सब में कहीं भी इंसान नहीं है. इंसान केवल साहित्य में मिलता है और वहीं उसका दिल धड़कता है. इसलिए मैं शायद लेखन की ओर मुड़ गया. उन्होंने अपने लेखन पर हुई शुरुआती आलोचना के बारे में कहा कि लोगों ने कहा कि मैं अंधेरे और गंदगी के बारे मैं ज़्यादा लिखता हूं तो उनको मेरा जवाब है कि जब जीवन में यही कड़वी सच्चाई है तो उससे मुंह मोड़ना लेखक का धर्म नहीं है. मेरा उपन्यास ‘नेमतख़ाना‘ भोजन के बारे में नहीं, बल्कि उससे जुड़े दर्शन पर है. इसके बाद साहित्य मंच कार्यक्रम में धीरज भटनागर ने ‘श्रीरामचरितमानस‘ के खड़ी बोली में किए पद्यअनुवाद की प्रक्रिया के बारे में बताते हुए कुछ अंशों का पाठ किया. सांस्कृतिक कार्यक्रम के अंतर्गत सीसीआरटी छात्रवृत्ति पा रही सानवी बत्रा ने कथक नृत्य और वीर मारवाह ने तबला वादन प्रस्तुत किया.