प्रश्न : सबसे पहले तो अकादमी सम्मान के लिए आपको बहुत–बहुत बधाई। क्या आपको नहीं लगता कि ये सम्मान आपको थोड़ा पहले ही मिल जाना चाहिए था ?
दिविक रमेश : बहुत धन्यवाद। आपकी भावना के प्रति अभार व्यक्त करता हूं। सोशल मीडिया पर भी और व्यक्तिगत रूप से भी, कई सौ की संख्या में बधाई देने वालों में एक बड़ी संख्या ऐसे प्रशंसकों, जिनमें बड़े और मान्य साहित्यकार भी हैं, की है जिन्होंने टिप्पणी स्वरूप यही लिखा है कि मुझे यह पुरस्कार बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। त्रिलोचन जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था तब भी यह सवाल उठा था। और सवाल जायज भी था। आयु, प्रतिभा और काम में कमतर कुछ रचनाकारों को यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुका था। कारण कुछ भी रहे हों। भले ही संस्था प्रतिष्ठित हो, पुरस्कार प्रतिष्ठित हो, बावजूद कुछ विवादों के, देखने की सबसे बड़ी बात यह होती है कि पुरस्कार प्राप्तकर्ता के पुरस्कृत होने को साहित्य–क्षेत्र के महानुभावों सहित कितनी बड़ी संख्या में लोगों की स्वीकृति मिली है। यह सुख मुझे इस बार भी मिला है, और कहीं ज्यादा।
प्रश्न : बाल–साहित्य व बाल–साहित्यकारों के प्रति हिंदी के साहित्य–जगत में बहुधा एक प्रकार की अगम्भीरता दिखाई देती है। ऐसा क्यों है ?
दिविक रमेश : यह ठीक है कि बाल–साहित्य और बाल-साहित्यकारों को हिंदी साहित्य के इतिहास, माननीय आलोचकों और साहित्यिक संस्थाओं ने न केवल महत्त्व कम दिया बल्कि उपेक्षा तक की है। ठीक वैसे ही जैसे बालक की भी उपेक्षा होती रही है। लेकिन इधर स्थिति में लगातार सुधार आ रहा है। हां, बहुत कुछ और अपेक्षित है। बाल–साहित्य (रचनात्मक) लेखन रचना–प्रक्रिया, गम्भीरता, जिम्मेदारी, महत्त्व आदि की दृष्टि से बड़ों के साहित्य से कमतर नहीं है। लेकिन विडम्बना देखिए संस्थाएं बाल–साहित्य के पुरस्कार की राशि अपेक्षाकृत कम रखती हैं। ज्ञानपीठ, बिड़ला फाउंडेशन या नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था को बाल-साहित्य पर पुरस्कार क्यों नहीं देना चाहिए ?
प्रश्न : आज बच्चे कोर्स के अलावा अन्य पुस्तकों को लगभग नहीं पढ़ते हैं। आपकी नजर में इस का क्या कारण है और उन्हें कैसे वापस लाया जा सकता है ?
दिविक रमेश : यह सचमुच गम्भीर मसला है और चिंता की बात है । पुस्तक की ओर बच्चे को लौटाने की अधिक से अधिक कोशिश घर से विद्यालय आदि स्थानों तक बराबर होनी चाहिए। लेखन तो जिम्मेदारी से होना ही चाहिए, उसकी पुस्तक आदि के रूप में प्रस्तुति भी आकर्षक होनी चाहिए। मोबाइल आदि के रूप में मैं टेक्नोलोजी के उपयोग का विरोधी नहीं हूं, लेकिन उस पर निर्भर हो जाने की अति की सोच से मुझे डर लगता है। माता–पिता को बच्चों के लिए पुस्तकें और बाल–पत्रिकाएं खरीदने और उनका महत्त्व बताने का बजट और समय निकालना होगा।
प्रश्न : बाल–साहित्य कैसा होना चाहिए और इसके समकालीन सरोकार क्या होने चाहिए ?
दिविक रमेश : बाल–साहित्य बच्चों के दोस्त की तरह होना चाहिए। अर्थात उनका होना चाहिए, उनके लिए नहीं होना चाहिए। अर्थात बच्चे को उपदेश देकर शिक्षित करने के लिए नहीं बल्कि दोस्त बन कर मनोरंजन और समझ साझा करने के लिए होना चाहिए। ऐसे साहित्य के बीज बच्चों के बीच अधिक–अधिक से रहकर ही मिला करते हैं।
प्रश्न : आखिरी सवाल जरा विषय से हटकर है कि बाल–साहित्य, दलित–साहित्य, प्रवासी–साहित्य, स्त्री–साहित्य जैसे साहित्यिक विभाजनों को आप कितना सही मानते हैं ? क्या ये विभाजन साहित्य को कमजोर नहीं करते हैं ?
दिविक रमेश : साहित्य, साहित्य होता है। ये विभाजन अध्ययन की सुविधा के लिए हो सकते हैं, शोध के लिए भी हो सकते हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि ऐसे विभाजन प्राय: जल्दी से जल्दी यश, चर्चा, पुरस्कार आदि बटोरने की वस्तु अधिक होते जा रहे हैं। ये विभाजन, विभाजन के नाम पर किसी किस्म की रियायत लेने के लिए नहीं होने चाहिए।