मुंबई: ‘मैं भूतकाल में नहीं जीना चाहता…’ को अपने जीवन का सिद्धांत मानने वाले लेखक-निर्देशक श्याम बेनेगल के निधन से फिल्म जगत के साथ-साथ उनके चाहने वालों में भी उदासी है. हालांकि इसी माह उन्होंने अपना 90वां जन्मदिन मनाया था. बेनेगल लंबे समय से अपनी बढ़ती उम्र संबंधी दिक्कतों से जूझ रहे थे. शायद इसीलिए उनकी बेटी पिया बेनेगल ने कहा भी कि एक दिन ऐसा होना तय था. बेनेगल अपने काम के लिए पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित थे. 1974 में फिल्म ‘अंकुर’ में अपने निर्देशन से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छा जाने वाले बेनेगल ने इस फिल्म में सामंतवाद और यौन उत्पीड़न जैसे ज्वलंत मुद्दों को उजागर किया था. श्याम के साथ शबाना आजमी की भी ये पहली फिल्म थी. बाद में ‘मंडी’, ‘कलियुग’, ‘निशांत’, ‘मंथन’, ‘जुबैदा’, ‘भूमिका’, ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ और ‘सरदारी बेगम’ जैसी यादगार फ‍िल्में बनाईं, जिन्हें आज भी याद किया जाता है. याद रहे कि ‘मंथन’ पहली ऐसी फिल्म थी, जो दर्शकों के आर्थिक सहयोग से बनी थी. ये फिल्म डेयरी आंदोलन पर आधारित थी.

बेनेगल की फिल्मों की सबसे बड़ी खूबी ये रही कि वो आम लोगों के जीवन की सच्चाई और उनके संघर्षों को प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत करती थीं. उन्होंने भारतीय सिनेमा को कई उम्दा कलाकार दिए, ज‍िनमें शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, अमरीश पुरी, अनंत नाग जैसे अभिनेता शाम‍िल हैं. बेनेगल ने छोटे परदे के लिए दूरदर्शन पर ‘भारत एक खोज’,’कहता है जोकर’, ‘कथा सागर’ जैसे धारावाहिकों का निर्देशन तो किया ही था, अपने गुरु सत्यजीत रे और देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पर भी वृत्त-चित्र बनाया था. बेनेगल के निधन की सूचना मिलते ही फिल्म जगत के अलावा दलगत राजनीति से इतर हटकर राजनेताओं, केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों में भी भी शोक श्रद्धांजलि देने की होड़ लग गई. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने उन्हें नमन करते हुए कहा, भारतीय सिनेमा दिग्दर्शन के विशिष्ट हस्ताक्षर श्याम बेनेगल के निधन से एक सर्जनशील कलासाधक का अंत हो गया. सोशल मीडिया भी बेनेगल की याद से भरा है.