गीतकार की औकात क्या है
जितने पाप किए थे, उनसे मुक्त हो गया हूं—-बताना था असल में मैं हूं क्या
-गीतकार पीयूष मिश्रा ने अपनी किताब के मायने पर खुलकर की बात
-बोले, लोग अपना असली रूप नहीं दिखाना चाहते, लेकिन मैंने ऐसा किया
नवीन पपनै, जागरण
देहरादून: ऐसे लोग विरले ही होते हैं जो अपने अतीत की भूमिका और उससे उपजी विकृतियों को डंके की चोट पर सार्वजनिक करते हैं। वो भी बिना किसी हिचक और संकोच के। विकृति भी ऐसी जिसने पत्नी, बच्चे, पिता, प्रेमिका, दोस्त, समाज और न जाने कितने अनगिनत चेहरों की खुशी को छीन लिया। शोषण, उत्पीड़न, उपेक्षा ने राह में रोड़े अटका दिए। भटकाव ने गले लगा लिया था। इसके बावजूद हिम्मत हारने के बजाय सच को सामने लाने का जो साहसिक निर्णय लिया वह प्रत्याशित जरूर था, मगर परिस्थितियां ऐसी बनीं कि जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। अपने कर्म, दायित्व और भूमिका को अभिव्यक्त करने के लिए ऐसे शीर्षक की रचना की, जिसे उनके चाहने वालों ने हाथों-हाथ लिया। बात हो रही है गीतकार, नाटककार, अभिनेता, रंगमंच कलाकार, स्क्रिप्ट राइटर, गायक, संगीत निर्देशक पीयूष मिश्रा की।
जागरण संवादी के पहले दिन के चौथे एवं अंतिम सत्र ‘गीतकार की औकात क्या है’ में मंच पर पीयूष मिश्रा थे और उनसे संवाद का जिम्मा पत्रकार एवं लेखक अंजुम शर्मा के पास था। उनकी बेस्टसेलर किताब तुम्हारी औकात क्या है से चर्चा की शुरुआत हुई तो पहला सवाल इसे लिखने के औचित्य पर पूछा गया। पीयूष ने फक्कड़ अंदाज में कह दिया… मैंने उल्टी कर दी। मवाद भर गया था। मैंने जितने पाप किए थे उनसे मुक्त हो गया हूं। तारीफ बहुत हो गई थी। दिमाग खराब हो गया था, लग रहा था बड़ा अभिनेता बन गया हूं लेकिन मुझे अपनी औकात पता थी। मैं समाज को बताना चाहता था कि असल में मैं हूं क्या। अपना असली रूप कोई दिखाना ही नहीं चाहता, लेकिन मैंने ऐसा करने का साहस किया। आज मेरी यह उदारता पाठकों का उल्लास बन गई है। अनुपम आनंद जैसी अनुभूति होती है, जब लोग आपके काम को पसंद करते हैं। धाराप्रवाह विमर्श को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मैंने इसे कोरोना काल में लिखा, जब लोग या तो सो रहे थे या रो रहे थे। उपन्यास में स्वयं के और पात्रों के काल्पनिक नाम पर सवाल उठा तो जवाब आया कि मैं-मैं का अहंकार आ गया था, इसलिए थर्ड पर्सन को लिया गया। स्थान या जगह का किसी साहित्यकार, कलाकार की मानसिकता पर प्रभाव पड़ने के सवाल पर बिना समय गंवाए पीयूष ने कहा कि पड़ता है न, मैं इतना दबा और कुचला हो गया था कि मेरे शहर के कुत्तों ने भौंकना तक बंद कर दिया था। वह उस समय भावुक हो गए जब उनकी कहानी जुबां पर आई। पिता को सर कहने से लेकर, 20 साल के उतार-चढ़ाव भरे सफर, सामाजिक और पारिवारिक उपेक्षा से लेकर, भटकाव तक के कई वृतांत से उन्होंने पांडाल में बैठे लोगों को भी भावुक कर दिया। अपने वामपंथ से अचानक दक्षिणपंथ के झुकाव पर कहा कि जब तक आप अपना शोषण करने के लिए तैयार नहीं होते, कुछ नहीं हो सकता। सफलता और असफलता के पैमाने को भी पीयूष ने अपने तरह से सामने रखा। चाहे 1998 में दिल से फिल्म की असफलता हो या 2004 में आई मकबूल में संतोष का भाव, मदिरा से पथभ्रमक जैसी स्थिति हो या उसके बाद योगसाधना का प्रयास…हर एक पहलू को श्रोताओं के सामने रखा। दार्शनिक अंदाज में पीयूष ने यह कहकर खूब तालियां बटोरी कि उन्हें नकली और झूठी बातें पसंद नहीं हैं, लोग भले उन्हें नकार दें लेकिन वह अपना काम पसंद करते हैं। पद्मश्री की चाहत का सवाल भी उठा तो बड़ी साफगोई से इससे इन्कार कर दिया। हालांकि यह भी जोड़ा कि यदि कोई ऐसा सोचता है तो वह कुछ नहीं कह सकते। उन्होंने युवाओं का आह्वान किया कि हर किसी को अपना कर्म ईमानदारी, निष्ठा और समर्पण से करना है, तभी जिंदगी जीने का मजा है। खूब तालियां बजी और पीयूष ने भी जयहिंद कहकर अपनी बात को विराम दिया।