लखनऊ: बीज को पौधा बनने के लिए जिस तरह सूर्य का प्रकाश चाहिए होता है, उसी भांति कलाओं को प्रस्फुटित करने के लिए लोक की सुषमा आवश्यक होती है. रंगमंच एक जीवंत घटना है, जो दर्शकों के बीच घटित होती है. दर्शक नहीं होगा तो रंगमंच नहीं होगा. रंगमंच पल्लवित हो, इसके लिए उसे लोक का प्रकाश चाहिए. संवादी के दूसरे दिन के तीसरे सत्र ‘लोक से क्यों दूर रंगमंच‘ का सार यही है. विषय रंगमंच का था, ऐसे में परिचर्चा के साक्षी रंगकर्मी, नाट्यप्रेमी और थिएटर के विद्यार्थी ही अधिकतर थे. उनकी समस्या और जिज्ञासा का अनुभव रखने वाले नाट्य निर्देशक अजय मलकानी ने संचालन की कला से विमर्श को सहज और ग्राह्य बनाया. लोक से क्यों दूर हो रहा रंगमंच? अजय ने पहला प्रश्न किया. वरिष्ठ रंगकर्मी भानू भारती ने कहा, रंगमंच के सामने लोक का संकट है. फिर भी यह जितना है, जैसा भी है लोक की वजह से है. चर्चा में डूबे दर्शकों को भानू ने वहां से हटाकर कुछ पल सलिला में खड़ा किया और उन्हीं को दृष्टांत बनाते हुए समझाया कि आप एक नदी में दोबारा नहीं जाते. जब आप वहां थे, उस समय का पानी अगली बार पहुंचने पर प्रवाहित हो चुका होगा. नाटक भी ऐसा ही है. यह कल भी उसी स्थान पर खेला जाएगा, लेकिन काफी कुछ बदल जाएगा. अजय मलकानी अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक वामन केंद्रे से मुखातिब हुए. पूछा, लोक के संदर्भ में रंगमंच की क्या चुनौतियां हैं? वामन ने भानू के तर्क से सहमति जताई और लोक संकल्पना को परिभाषित किया कि नाटक निरंतर लोक की ओर नहीं आता. लोक और नाटक के बीच में अभी सेतु बनना बाकी है. महाराष्ट्र में चार प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 3.3 प्रतिशत लोग नाटक देखते हैं. हर समाज अपने मनोरंजन की व्यवस्था करता है. इसलिए अब उसे नाटक की जरूरत नहीं रही.
वामन थोड़ी देर के लिए दर्शकों को नाट्य के अतीत में ले गए और प्राचीन नाटक से साक्षात्कार कराया. यह भी बताया कि नाट्यशास्त्र और नाट्य के निर्माण का कोई माध्यम है तो वो है नाटक. नाट्यशास्त्र की रचना देव और दानव दोनों के लिए हुई है. लोक के संदर्भ में रंगमंच का लंबा अनुभव रखने वाले भारतेंदु नाट्य अकादमी के निदेशक बिपिन कुमार से प्रश्न उनके अनुभव पर किया गया तो उन्होंने सिक्किम से लेकर दिल्ली और उत्तर प्रदेश तक की यात्रा कराई. कहा, लोग कथावस्तु में भटक जाते हैं. किसके लिए नाटक कर रहे हैं, यह विचार नहीं करते. वामन का उदाहरण देते हुए कहा कि आप नाटक विदेशी भले करिए, लेकिन समस्या स्थानीय होनी चाहिए. केंद्रे ने यही किया, इसलिए उनके सामने लोक की कमी नहीं रही. लोक का संकट नगरीय रंगमंच में है या ग्रामीण में? वामन केंद्रे ने कहा कि दोनों जगह. लोक जिस भाषा को समझता है, उसी भाषा में नाटक करने की जरूरत है. हमारा लोक सिनेमा वाले ले गए और उनका लोक वेबसीरीज व धारावाहिक वाले, लेकिन फिर बारी हमारी ही है. इसलिए स्वांत: सुखाय का नाटक किनारे रखकर नई रंगभाषा का नाटक खेलना होगा. भानू भारती ने 50 वर्षों के अपने अनुभव को बताया- दर्शक हैं, लेकिन संकट नाटक का है. नाटक व्यावसायिक नहीं हो सकता. टिकट जरूरी है, लेकिन सरकार और समाज का संरक्षण भी आवश्यक है. दर्शक दीर्घा से वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल रस्तोगी ने कन्यादान और आखिरी बसंत जैसे नाटकों का उदाहरण देकर रंगकर्मियों को स्वस्थ मनोरंजन करने का संदेश दिया.