भोपालः दुनिया एक रंगमंच है और हम सभी इस नाटक में अपनी अपनी भूमिकाएं अदा करते हैं कि बात सच मानें तो फिर हबीब तनवीर को भुलाना मुश्किल है. पर सच तो यही है कि इस साल हबीब तनवीर की पुण्यतिथि कोरोना काल के चलते सही ढंग से याद न की जा सकी. यहां तक कि सोशल मीडिया पर भी उन्हें भुला दिया गया. थिएटर खुले नहीं थे, इसलिए रंगमंच ने भी अपने सितारे की याद में कुछ न किया. हां दैनिक जागरण जैसे कुछ अखबारों ने जरूर उनके बारे में लेख प्रकाशित किए. हबीब तनवीर ने अपनी पूरी ज़िंदगी नाटक को समर्पित कर दी थी. नाटक के लिए वह दुनिया भर में भागते रहे. थिएटर देखते रहे, सीखते रहे. इसके लिए पैसों का जुगाड़ हो सके इसके लिए ठेला लगाया, अंगूर बेचा, सर्कस में काम किया, रेडियो से जुड़े, नाइट क्लबों में गाया, पर नाटक कभी न छूटा. 1 सितंबर, 1923 को रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर का पूरा नाम हबीब अहमद खान था. उनके पिता पेशावर, जो अब पाकिस्तान में है, से थे और मां थीं छत्तीसगढ़ के रायपुर की. तनवीर बचपन में आईएएस बनना चाहते थे. पर पहले साइंस लिया, फिर उर्दू ले लिया. इसी विषय से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एमए किया.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान ही उन पर कविताएं लिखने का ऐसा चस्का लगा कि हबीब अहमद खान से तखल्लुस जोड़ बन गए हबीब तनवीर. पढ़ाई पूरी हुई तो ऑल इंडिया रेडियो से जुड़ गए. फिल्मों के लिए भी काम किया. करीब नौ फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी. कुछ में अभिनय भी किया. फिर दिल्ली आकर हिंदुस्तानी थियेटर से जुड़ गए. यहां बच्चों के लिए नाटक करते थे. यहीं उनकी मुलाकात अभिनेत्री और निर्देशिका मोनिका मिश्रा से हुई, जो बाद में उनकी पत्नी बनीं. इसके बाद हबीब तनवीर ब्रिटेन के रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामाटिक आर्ट में थियेटर सीखने चले गए. हबीब तनवीर ने 'चरणदास चोर' और 'आगरा बाज़ार' जैसे नाटकों से हिंदी रंगमंच को समृद्ध किया. भारत में वह दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मविभूषण, तो फ्रांस के सर्वाधिक प्रतिष्ठित सम्मानों में से एक 'ऑफिसर ऑफ द ऑर्डर ऑफ आर्ट्स एंड लेटर्स' से नवाजे गए. कालिदास राष्ट्रीय सम्मान, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, नेशनल रिसर्च प्रोफेसरशिप तो उन्हें मिले ही थे.