लीला-भाव से जीवित गीतों को गाने वाले
दिशा और काल की सीमाओं से निर्बंध हे महामहिमामय!
मैं जनमा था अज्ञात-अपरिचित
कहीं मिट्टी में पड़े-पड़े नष्ट हो जाने के लिये,
किन्तु तेरी वैभवशालिनी दया ने
मुझे बना दिया बांसुरी
चराचर को आनन्दित करने वाली…यह मलयालम के महान रचनाकार गोविंद शंकर कुरुप की काव्य रचना बांसुरी की शुरुआती पंक्तिया हैं. जी एस कुरुप के नाम से समूचे भारतीय साहित्य को अपनी मेधा से रौशन करने वाले इस महाकवि की जयंती पर उन्हें उस रूप में याद नहीं किया गया, जिस रूप में याद किया जाना चाहिए. कुरुप के साहित्य में प्राचीन भारतीय मूल्यों और आधुनिक विचारों का सम्मान दिखाई देता है, शायद इसकी वजह संस्कृत साहित्य में उनकी रुचि थी. कहते हैं बचपन में संस्कृत की रचनाओं से ही उन्हें साहित्य का चस्का लगा. बाद में उनका झुकाव अंग्रेजी साहित्य की ओर हुआ.
मलयाली भाषा के इस विख्यात कवि ने आरंभिक जीवन में ही अमरकोष, श्रीरामोदंतम, रघुवंश महाकाव्य के कई श्लोक कंठस्थ कर लिए थे, और 11 वर्ष की आयु में लिखना शुरू कर दिया था. महज 17 वर्ष की आयु में छात्र जीवन में उनका पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ. बाद में उनके 25 से अधिक काव्य संग्रह प्रकाशित हुए. कविताओं के अलावा उन्होंने निबंध भी लिखे और उमर खय्याम की रूबाइयां, कालिदास के मेघदूत और रविन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि का अनुवाद भी मलयालम में किया. कुरुप वह पहले रचनाकार थे, जिन्हें अपनी कृति ओटक्कुषल अर्थात बांसुरी के लिए पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था. वह सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी और पद्म भूषण से भी सम्मानित किए गए थे. खास बात यह भी कि कुरुप ने गीत संगीत वाली पहली मलयालम फिल्म 'निर्मला' के लिए गीत भी लिखे थे.