मुंबई: हिंदी फिल्मों के उम्दा गीतकार योगेश गौर नहीं रहे. लखनऊ में 19 मार्च, 1943 को जन्मे योगेश गौर ने एक जमाने में हिंदी सिनेमा को कई बेहतरीन गीत दिए.यही वजह है कि उनके निधन से हिंदी जगत के फिल्मी मधुर संगीत का हर प्रेमी उदास हो गया. बॉलीवुड संगीत कर्मियों पर काम करने वाले यतींद्र मिश्र ने एक लंबी सी टिप्पणी अपने फेसबुक पेज पर कुछ यों लिखी.हिंदी-पट्टी के समर्थ गीतकारों में रहे योगेश जी भी चले गए. उनकी कलम हमेशा से जीवन की जिजीविषा को प्रश्नांकित करके देखने में भरोसा करती थी. वे पंडित प्रदीप और इंदीवर की परंपरा के ऐसे आधुनिक उदाहरण थे, जिनके हिंदी फ़िल्म गीत, संख्या में कम रहकर भी सार्थक गीतों की निगहबानी करते हैं. उनका दार्शनिक रूप तो हर किसी को लुभाता रहा, जिसके चलते 'आनन्द' और 'मिली' जैसी फिल्मों के गीत हमें हासिल हो सके हैं. मगर मुझे उनका प्रेम में डूबा हुआ महबूब के दिल वाला कोना लुभाता है, जिसकी कुछ ही मिसालों ने गज़ब ढाया है. हालांकि इनके बीच भी विचार और दर्शन की डोर कभी टूटने न पाई.
यतींद्र मिश्र ने आगे लिखा, “योगेश जी के लिखे और लता मंगेशकर जी के गाए कुछ ऐसे गीतों को याद करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दे रहा हूं, जिन गीतों की धुनों को उस समय के दिग्गज संगीतकारों ने एक्सपेरिमेंटल या ऑफबीट तर्ज़ों की तरह रचा. आप याद कर सकते हैं- रजनीगंधा फिल्म का 'रजनीगंधा फूल तुम्हारे', मंज़िल फिल्म का 'रिमझिम गिरे सावन', अन्नदाता फिल्म का 'रातों के साये घने', छोटी सी बात फिल्म का 'ना जाने क्यूं होता है ये ज़िंदगी के साथ', उस पार फिल्म का 'ये जब से हुई जिया की चोरी पतंग सा उड़े' और दिल्लगी फिल्म का 'मैं कौन सा गीत सुनाऊं क्या गाऊं'…इसी तरह हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म 'रंग-बिरंगी' के लिए उनका लिखा और बेहद खूबसूरत गाना, 'कभी कुछ पल जीवन के, लगता है के चलते चलते, कुछ देर ठहर जाते हैं' एक बेमिसाल गीत है, जिसे याद किया जाना चाहिए. योगेश जैसा जीवन को सच्चाई की बेलौस रंगत में पढ़ने वाला गीतकार जल्दी नहीं होगा. एक कष्ट ये भी साथ रहेगा कि उनको वो ख्याति, काम और लोकप्रियता नहीं मिली, जिसके वो हक़दार थे. याद आते हैं ऐसे कई समर्थ गीतकार, जिनके खाते में कम शोहरत आई. उस जमात में योगेश की तरह ही हिंदी-पृष्ठभूमि के गोपाल सिंह नेपाली, गुलशन बावरा, प्रेम धवन, एसएच बिहारी, संतोष आनन्द, वसन्त देव जैसे कितने नगीने गिने जा सकते हैं. नमन योगेश जी.”