श्रीकांत वर्मा अपनी पुण्यतिथि (25 मई) पर उस तरह याद नहीं किए गए, जैसे उन्हें किया जाना चाहिए था. इसकी वजह कोरोना है, साहित्य जगत की विस्मृति या फिर सियासत से उनका जुड़ाव, बताना मुश्किल है. फिर भी यह सच है कि श्रीकांत वर्मा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक दौर हिंदी के संभवत: सबसे उर्जावान लेखकों में से एक थे. हालांकि एक दल विशेष से जुड़ जाने के चलते उनके लिखे का मूल्यांकन उस रूप में नहीं हुआ, जिस रूप में होना चाहिए.वह उन विरले कवियों में थे, जिन्होंने अपने भीतर से होकर बहती पिघलते लोहे-सी काव्य-धारा को पूरे धीरज से सहा और उसे बिल्कुल नए काव्य-विन्यासों में ढाला. चाहे वह मगध कविता हो या जलसाघर उनकी हर कविता में एक संदेश था. वह नई कविता आंदोलन के अग्रणी कवियों में शुमार रहे. उनको दो बार आयोवा विश्वविद्यालय की ओर से विदेश में 'अन्तरराष्ट्रीय लेखन कार्यक्रम' में 'विजिटिंग पोएट' के रूप में आमंत्रित किया गया था. बावजूद इसके यह सच है कि कई बार काव्य-आवेग ने श्रीकांत वर्मा को धीरज बरतने का अवकाश नहीं दिया.
श्रीकांत वर्मा का काव्य-आवेग या काव्य-संवेदन उन्हीं की कविताओं के सुघड़ विन्यासों में आसपास, यहां-वहां चिनगारियों की तरह बिखर गया. शायद इसीलिए उनकी कविताएं उनके काव्य-संयम और काव्य-असंयम का विलक्षण साक्ष्य और फलन हैं. साहित्य सृजन के लिए श्रीकांत वर्मा को मध्य प्रदेश सरकार का 'तुलसी पुरस्कार', केरल सरकार का 'कुमार आशान राष्ट्रीय पुरस्कार' मिला था. वह 'आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी पुरस्कार' और 'शिखर सम्मान' से भी नवाजे गए थे. उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता के दौरान काव्य व पत्रकारिता की जगह सियासत को तरजीह दी. पर इस दौरान लेखन से उनका नाता न टूटा. वह हिंदी के साथ-साथ तीसरी दुनिया के देशों के सृजनात्मक साहित्य के गहरे जानकार थे. उन्होंने अनुवाद किया और जब जो महसूस किया, लिखा भी. यह कम कमाल नहीं कि जिस सियासत के लिए वह साहित्य से दूर गए उससे इस कदर उनका मोह भंग हुआ कि उनकी अधिकांश उम्दा रचनाएं सत्ता विरोधी स्वर की गूंज लिए हुए हैं. मगध की आखिरी पंक्तियों को ही देखें तो, 'क्षमा करें महाराज, आप नहीं समझेंगे, यह कैसा सन्नाटा है…'