नागरिकता संशोधन बिल को मुद्दा बनाकर संस्कृति और क्षेत्रवाद के नाम पर सुलग रहे पूर्वोत्तर राज्यों के लिए सुदूर 'नवाबी नगरी से बड़ा संदेश निकला। विषय बेशक अलग था। अवसर भी ज्वलंत राजनीतिक मुद्दे से बिल्कुल सुदूर मगर, मंथन के मूल में भाषा को लेकर चिंता, चिंतन और चेतना की छटपटाहट बिल्कुल वैसी ही दिखी जिससे आजकल देश का 'पूरब जूझ रहा है। इस आशय के साथ कि अंग्रेजी के 'ग्लोबलाइजेशन वाले दौर में वैश्विक पटल पर सिर्फ राष्ट्रभाषा हिंदी का अस्तित्व बचाना ही चुनौती भर नहीं है। उसे पालने-पोसने और आगे बढ़ाने के जतन भी होने चाहिए। आप दंग रह जाएंगे, भाषा की जिस जटिल डोर से हमारे राष्ट्र की माला गुंथी है, उसपर चर्चा के चंद पलों ने हमें बड़ी राह दिखा दी। महज 45 मिनट में हिंदी को देश-दुनिया में सींच रहे दिग्गजों ने पूरब से दक्षिण तक के विरोध को आईना दिखा दिया, न्याय की वह नई राह दिखाई जिसमें हिंदी तोड़ती नहीं जोड़ती है। हम सबकी आत्मा है। इससे द्वेष नहीं प्यार करिए। बोलिए नहीं, मन में बसाइए…। फिर देखिए, कानून आड़े आएगा न क्षेत्र, सामने होगा मात्र राष्ट्र, राष्ट्र और सिर्फ एक राष्ट्र…।
इस सत्र में मदन मोहन मालवीय हिंदी पत्रकारिता संस्थान काशी विद्यापीठ के पूर्व निदेशक और वर्तमान में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के कुलपति राममोहन पाठक, संगीत और साहित्य के अध्येता यतींद्र मिश्र और कृष्ण बिहारी। संचालन की कमान संभाली लखनऊ विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर मुकुल श्रीवास्तव ने। विषय-हिंदी का फैलता दायरा…। मंथन का आरंभ मुकुलजी के उस सवाल से हुआ, जो हमारी चिंताओं के शिखर पर है। यानी ग्लोबल होती हिंदी, उसमें बदलाव और भविष्य…? स्थिति की हकीकत बयां करने वाले सीधे और सपाट प्रश्न का उत्तर देने के लिए सबसे पहले आगे आए कृष्ण बिहारी। खुद से जुड़े किस्से से बात शुरू की और हिंदी की व्यापकता बखूबी पेश कर डाली। बताया, जिस मुहल्ले में वे रहते थे वहां 48 में से 46 मकान बंगाली परिवारों के थे। वे हिंदी बोलना जानते थे मगर, हीन मानकर नहीं बोलते थे। ऐसा इसलिए था क्योंकि उन्हें अपनी भाषा से अधिक लगाव था। हालांकि, बंगालियों की नफरत को उन्होंने भाषाई रूप से ही जवाब दिया। बंगाली भले हिंदी नहीं बोले, मगर उन्होंने बांग्ला सीख ली। गंगटोक का उदाहरण बताया कि किस तरह हिंदी को जानकर भी बच्चे कक्षा में नहीं बैठते थे। इन विषयों का आशय समझते हुए बिहारी जी ने कहा, हिंदी को लेकर चिंतित न हों। पठनीयता बेशक कम हुई है मगर,हिंदी फिल्मों ने इसे वैश्विक पटल पर वाचनीय बना दिया है। खाड़ी देशों का उदाहरण पेश करते हुआ बोले- हिंदी के नाम पर नाक भौं सिकोडऩे वाले अरबी हमारी फिल्मों के दीवाने हैैं। अंग्रेजी की तरह हिंदी के अनुवाद का स्वप्न साकार करने का भी जवाब दिया। बताया कि चिंतित न हों। आज अनुवादक सिर्फ काम करते हैैं। हमें गुरु रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि से सीखना चाहिए। हालांकि, उन्होंने चिंता जताई कि जिस तरह बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजने की होड़ है, वे ङ्क्षहदी को कैसे अपनाएंगे? जिस तरह हम भाषा से विमुख हो रहे हैैं, कहीं हस्ताक्षर करना ही न भूल जाएं…।
जिक्र फिल्मों का छिड़ा तो संगीत के हमकदम यतींद्र जवाब देने में कहां पीछे हटते। हिंदी फिल्मों के गाने छाए है मगर साहित्यकार ङ्क्षहदी फिल्मों से दूर क्यों हैैं? सवाल आया तो यतींद्र दो टूक बोले, साहित्य की दुनिया में फिल्मों का दर्जा दोयम है। आज हिंदी में फिल्में बनाने वाले अंग्रेजी में किताबों का अनुवाद मांगते हैैं। हिंदी बोलना हीन समझते हैैं। यही चिंतनीय है…। सोशल मीडिया के दौर में ङ्क्षहग्लिश के बढ़ते चलन के सवाल पर उनकी चिंता और उम्मीद दोनों झलकीं। यह कहकर कि सोशल मीडिया से डरने की जरूरत नहीं है। अपनी भाषा में खुलकर लिखने का मंच मिला है। दुनिया में पहुंच बढ़ी है। हां, कलम की धार दिखाने के बजाए हम आत्ममुग्ध हो रहे हैैं। दूसरों का लिखा चोरी कर रहे हैैं। इससे बचना होगा। हिंदी पढ़ाने और बोलने वालों को जिम्मेदारी समझने होगी। शुरुआत घर से करनी होगी।
फिर बारी दक्षिण में हिंदी का झंडा बुलंद करने वाले राममोहन पाठक की आई। उनके मुश्किल सवाल में ही जैसे उम्मीदों की कोपलें फूट पड़ीं। आखिर रेडियो पर हिंदी गानों की फरमाइश दक्षिण से क्यों नहीं आती…? तमिलों के गढ़ में
हिंदी
की हुंकार भरने वाले पाठकजी ने संचालक, संवादी के सारथियों और देश के करोड़़ों लोगों को दैनिक जागरण के मंच से निश्चित किया कि
हिंदी
ही राष्ट्र भाषा है। विरोध के बीच दक्षिण में वह खूब फलफूल रही है। बस, जरूरत मातृ भाषा को मौसेरी बहनों यानी अन्य भाषाओं से संवाद बढ़ाने की है।
हिंदी
के विरोधियों को संदेश देते हुए बोले-मूल जवाब तो गांधीजी दे गए थे। यह कहकर कि राष्ट्रभाषा नहीं होगी तो क्या राष्ट्र को गूंगा रखेंगे…। उन्होंने दक्षिण में
हिंदी
की वह चमकदार तस्वीर भी रखी, जिसमें साढ़े नौ लाख से ज्यादा परीक्षार्थियों का भविष्य गढ़ा जा रहा है। हां, लगे हाथ राजनीति को भी आड़े हाथ लिया जो अपना क्षेत्र बचाने के लिए राष्ट्रभाषा को दांव पर लगा देती है।
हिंदी
गौरव, आप भी गर्व करिए
मंथन में गौरवान्वित करने वाले पल-पात्र भी निकले, जो
हिंदी
के माथे की बिंदी बन रहे हैैं। जैसे, दक्षिण भारत में 72 फीसद छात्रों ने
हिंदी
को विकल्प का विषय बनाया है। चेन्नई के जिस
हिंदी
संस्थान में धमाके हुए थे, अब वहां
हिंदी
मेला लगता है। प्रकाशक आते हैैं। खाड़ी के आबू धाबी शहर के न्यायालय में
हिंदी
तीसरी आधिकारिक भाषा है।
सुझाव, जिनसे निकली राह
विमर्श में सुझाव की राह भी निकली। पूर्व केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज के प्रयासों की सराहना करते हुए राममोहन पाठक ने कहा कि भाषा को अंकों में न आंकें। यह भाव और भावुकता है।
हिंदी
के साथ न्याय तभी होगा जब उसे अपने न्यायालय की भाषा बना दें। सबकुछ
हिंदी
में लिखा-पढ़ा जाए। जबकि यतींद्र ने कहा कि सिर्फ फिल्मी गानों पर थिरके नहीं, इसे हरपल जुबां पर लाएं।
–
अंकित कुमार
जिक्र फिल्मों का छिड़ा तो संगीत के हमकदम यतींद्र जवाब देने में कहां पीछे हटते। हिंदी फिल्मों के गाने छाए है मगर साहित्यकार ङ्क्षहदी फिल्मों से दूर क्यों हैैं? सवाल आया तो यतींद्र दो टूक बोले, साहित्य की दुनिया में फिल्मों का दर्जा दोयम है। आज हिंदी में फिल्में बनाने वाले अंग्रेजी में किताबों का अनुवाद मांगते हैैं। हिंदी बोलना हीन समझते हैैं। यही चिंतनीय है…। सोशल मीडिया के दौर में ङ्क्षहग्लिश के बढ़ते चलन के सवाल पर उनकी चिंता और उम्मीद दोनों झलकीं। यह कहकर कि सोशल मीडिया से डरने की जरूरत नहीं है। अपनी भाषा में खुलकर लिखने का मंच मिला है। दुनिया में पहुंच बढ़ी है। हां, कलम की धार दिखाने के बजाए हम आत्ममुग्ध हो रहे हैैं। दूसरों का लिखा चोरी कर रहे हैैं। इससे बचना होगा। हिंदी पढ़ाने और बोलने वालों को जिम्मेदारी समझने होगी। शुरुआत घर से करनी होगी।
फिर बारी दक्षिण में हिंदी का झंडा बुलंद करने वाले राममोहन पाठक की आई। उनके मुश्किल सवाल में ही जैसे उम्मीदों की कोपलें फूट पड़ीं। आखिर रेडियो पर हिंदी गानों की फरमाइश दक्षिण से क्यों नहीं आती…? तमिलों के गढ़ में
हिंदी
की हुंकार भरने वाले पाठकजी ने संचालक, संवादी के सारथियों और देश के करोड़़ों लोगों को दैनिक जागरण के मंच से निश्चित किया कि
हिंदी
ही राष्ट्र भाषा है। विरोध के बीच दक्षिण में वह खूब फलफूल रही है। बस, जरूरत मातृ भाषा को मौसेरी बहनों यानी अन्य भाषाओं से संवाद बढ़ाने की है।
हिंदी
के विरोधियों को संदेश देते हुए बोले-मूल जवाब तो गांधीजी दे गए थे। यह कहकर कि राष्ट्रभाषा नहीं होगी तो क्या राष्ट्र को गूंगा रखेंगे…। उन्होंने दक्षिण में
हिंदी
की वह चमकदार तस्वीर भी रखी, जिसमें साढ़े नौ लाख से ज्यादा परीक्षार्थियों का भविष्य गढ़ा जा रहा है। हां, लगे हाथ राजनीति को भी आड़े हाथ लिया जो अपना क्षेत्र बचाने के लिए राष्ट्रभाषा को दांव पर लगा देती है।
हिंदी
गौरव, आप भी गर्व करिए
मंथन में गौरवान्वित करने वाले पल-पात्र भी निकले, जो
हिंदी
के माथे की बिंदी बन रहे हैैं। जैसे, दक्षिण भारत में 72 फीसद छात्रों ने
हिंदी
को विकल्प का विषय बनाया है। चेन्नई के जिस
हिंदी
संस्थान में धमाके हुए थे, अब वहां
हिंदी
मेला लगता है। प्रकाशक आते हैैं। खाड़ी के आबू धाबी शहर के न्यायालय में
हिंदी
तीसरी आधिकारिक भाषा है।
सुझाव, जिनसे निकली राह
विमर्श में सुझाव की राह भी निकली। पूर्व केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज के प्रयासों की सराहना करते हुए राममोहन पाठक ने कहा कि भाषा को अंकों में न आंकें। यह भाव और भावुकता है।
हिंदी
के साथ न्याय तभी होगा जब उसे अपने न्यायालय की भाषा बना दें। सबकुछ
हिंदी
में लिखा-पढ़ा जाए। जबकि यतींद्र ने कहा कि सिर्फ फिल्मी गानों पर थिरके नहीं, इसे हरपल जुबां पर लाएं।
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अंकित कुमार