नई दिल्लीः विश्व पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन के स्टॉल पर लेखकों और पाठकों का जमघट लगा ही रह रहा है. इसी क्रम में कवि कुमार विश्वास द्वारा संपादित 'मैं जो हूं 'जॉन एलिया' हूं' पुस्तक पर चर्चा में खुद कुमार विश्वास शरीक हुए. उन्होंने जॉन एलिया की विशेषता बताते हुए कहा कि वह भारत के लिए उनका चुनिंदा कलेक्शन लेकर आए हैं औरआने वाले समय में उनकी और रचनाएं आने वाली हैं, जिसमें ‘जॉन एलिया’ की समग्र रचना होंगी. उन्होंने कहा, 'जॉन से मोहब्बत रखने वाले उनसे मोहब्बत करते रहिये.' इसी स्टॉल पर दूसरे कार्यक्रम में लेखक मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा 'रंग कितने, संग मेरे' का लोकार्पण व चर्चा हुई. नैमिशराय ने कहा कि इस आत्मकथा में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक सभी रंगों को समाहित किया गया है. ये सभी रंग इस पुस्तक में हैं, इसलिए इसको यह नाम दिया 'रंग कितने, संग मेरे'. इसमें अलग-अलग मुद्दे उठाये गये हैं. लेखक इन सभी से जूझता है. मोहनदास नैमिशराय ने चौथा खण्ड भी प्रारम्भ कर दिया है क्योंकि यह विषय गम्भीर है. 'किसी न किसी रूप में दलित समाज नये तरह के पिंजरे में क़ैद किया जा रहा है. दलित समाज का व्यक्ति जब तक रहता है उसे दलित होने की कीमत चुकानी पड़ती है. चर्चा को आगे बढ़ाते हुए नैमिशराय से प्रश्न पूछा गया कि आपकी विचारधारा में गुलाबी गैंग बनाने का अभिप्राय क्या है? जवाब में मोहनदास नैमिशराय का कहना था कि महिलाओं का सशक्त समुदाय है…कोई भी गैंग यदि मेरे ख़िलाफ़ है तो मै कुछ लिखता हूं यदि उसकी प्रतिक्रिया मिलती है तो यह अच्छी बात है.
मेले में वाणी प्रकाशन के स्टॉल पर विश्व हिन्दी दिवस भी मना और 'हिन्दी का ताना-बाना और वैश्विक परिप्रेक्ष्य' पर परिचर्चा आयोजित की गयी. इसमें सुरेश सलिल, महेश कटारे, रत्नेश्वर सिंह, एस. आर. हरनोट आदि ने भाग लिया. वक्ताओं ने मुख्य रूप से भाषा की मृत्यु की आशंका, भाषा प्रदूषण, अंग्रेज़ी के वर्चस्व और भाषा के साथ मनुष्यता के संकट पर भी बात की. महेश कटारे ने कहा,' हिन्दी समावेशी भाषा है. भाषा के साथ एक परम्परा व संस्कृति चलती है. अनुराग सौरभ ने कहा, हमारी भाषा में शब्दों की कोई कमी नहीं है जो हम अन्य भाषा के शब्दों को लें. सुरेश सलिल का कहना था कि यह दौर मनुष्यता के लिए सबसे मुश्किल दौर है इससे अगर उबर गये तो सब ठीक होगा. भाषा बहता नीर है'…जैसे नदी में प्रदूषण होता है, उसी प्रकार भाषा प्रदूषित होती है. एस.आर. हरनोट ने हिमाचल के बारे में बताया साथ ही वहां की बोलियों के लिए भाषाई चिन्ता जाहिर की. 'हिंदी तो ऐसी भाषा है जो स्वागत करती है अन्य सभी भाषाओं का' इस नतीजे पर परिचर्चा का अन्त हुआ. एक और कार्यक्रम में रंगकर्मी और नुक्कड़ नाटकों के शिखर निर्देशक अरविन्द गौड़ के नए नाटक संग्रह 'नुक्कड़ पर दस्तक' का लोकार्पण व चर्चा हुई. कार्यक्रम की शुरुआत 'भ्रष्टाचार' नुक्कड़ नाटक से हुई. अरविन्द गौड़ का कहना था कि भ्रष्टाचार का, वह कीटाणु है जो कभी ख़त्म नहीं होता. पुस्तक 'नुक्कड़ पर दस्तक' नाटक की पृष्ठभूमि बताते हुए उन्होंने कहा, 'जो मंच पर है वह शब्दों में उतर कर आया हैं.' उन्होंने अपने नुक्कड़ नाटक के बारे में बताया कि इसमें सामाजिक, सामुदायिक अन्य सभी विषय सब शामिल हैं. समाज में जो भी विडम्बनाएं हैं, कुरीतियां हैं, हमें अन्दर तक प्रभावित करती हैं, नुक्कड़ नाटक का विषय रही हैं. परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए वाणी प्रकाशन के सीईओ लीलाधर मंडलोई ने प्रश्न पूछा कि नुक्कड़ नाटकों का इतिहास किस रूप में बदला? उन्होंने उत्तर देते हुए कहा कि नुक्कड़ नाटक का तात्पर्य ही होता है कि आंखों में आंखे डालकर बातें करना. अरविन्द गौड़ ने मिट्टी के तेल पर पहला नुक्कड़ नाटक किया, जिससे मज़दूरों को समय पर मिट्टी का तेल मिलने की शुरुआत हुई…उन्होंने अपने नाटक 'पुस्तकालय मदिरालय है' से शराब के ख़िलाफ़ आन्दोलन शुरु हुआ. उन्होंने बताया कि उनके 2 शिष्य थे जिन्हें पुलिस ने पकड़ लिया, कारण पूछने पर बताया कि ये आतंकवादी हैं क्योंकि इन्होंने काले कपड़े पहने हैं. इस तरह देखा जा सकता है कि अरविन्द गौड़ ने नुक्कड़ नाटक के लिए कितना संघर्ष किया. उन्होंने कुछ नाटकों का उदाहरण देते हुए बताया जैसे मौसम, मर्द, वो दिन…उन्होंने कहा ये सभी विषय समाज के लिए बेहद ज़रूरी हैं, जिन्हें फ़िल्मों में भी दिखाया जा रहा है. अन्त में गौड़ ने अपने नाटक 'नुक्कड़ पर दस्तक' का विमोचन किया और बताया इस नाटक को छापने में नवीन तरीके का उपयोग किया गया है. यह किताब आपके लिए है… यह बड़ी-बड़ी नहीं, छोटी-छोटी बात करती है.