दानापुर, उदय कुमार ने हर शनिवार दानापुर रेलवे स्टेशन के सामने नया नुक्कड़ नाटक करने का अभूतपूर्व रिकार्ड कायम किया है। वे नाटककार होने के साथ साथ अभिनेता व निर्देशक भी हैं। बिहार के 'लोक ' संगीत, नाटक व संस्कृति की गहरी समझ रखने वाले उदय कुमार ने सैंकड़ों ग्रामीण कलाकारों को आधुनिक रंगकर्म से जोड़ा है। उनकी असाधरण उपलब्धियों के लिए उन्हें बिहार सरकार द्वारा नाट्य लेखन के लिए दिया जाने वाला ' भिखारी ठाकुर सम्मान ' प्राप्त हो चुका है। पेश है उनके विचार।
1979 में विद्यालय के एक शिक्षक राजवल्लभ प्रसाद "विकल" जो कि एक रंगकर्मी के रूप में भी काफी सक्रिय थे, उनके सानिध्य में बाल कलाकार के रूप में नाटक से जुड़ाव । पहला मंच नाटक 1981 में "फैसला " स्थान एन .सी .घोष इन्स्टीट्यूट प्रेक्षागृह, खगौल । नुक्कड़ नाटक- जनता पागल हो गई 1980 में । राजवल्लभ प्रसाद "विकल "सरूर अली अंसारी जैसे अभिनेताओं एवं अनिरूध्द पाठक के निर्देशन और कला विधाओं के प्रति रुझान में डाॅ . पी गुप्ता से काफी प्रभावित हुआ । सामूहिक क्रियाकलापों में भागीदारी की प्रेरणा अपने पिता स्वo बासगीत प्रसाद वर्मा से मिली । हमारे पिता खेलकूद से जुड़े से जुड़े सामाजिक सरोकारों वाले व्यक्ति थे।
खगौल रंगमंच का महत्वपूर्ण केंद्र एन .सी .घोष इन्स्टीट्यूट का प्रेक्षागृह था। जहां नाट्य प्रस्तुति के साथ- साथ खगौल में सक्रिय सात- आठ रंग संस्थाओं के कलाकार नियमित जमा होते थे। कोई मंच पर तो कोई कमरे में, कोई मुख्य हाल में नाट्य चर्चा, रिहर्सल आदि करते नजर आते थे । इससे एक सशक्त सांस्कृतिक माहौल बनता था । लगभग 9 वर्ष पहले इसे रेलवे ने बंद कर शादी विवाह में इस्तेमाल किये जाने वाले सामुदायिक भवन में तब्दील कर दिया है ।
इसके बंद होने के कारण रंगकर्मियों में थोड़ी उदासीनता आ गई । रोज मिलने- जुलने में कमी और धीरे- धीरे विकल्प के अभाव में मंच नाटक लगभग समाप्त हो गया । यदा- कदा कहीं मुक्ताकाश मंच पर नाटक होते है । वर्तमान में रंगकर्म की सक्रियता में काफी कमी आई है ।लोक कला -संगीत, नाटक आदि स्थानीय माटी की खुशबू से भरे तथा आम जीवन से उपजे होने के कारण दिल के बहुत करीब होते है। लोक कलाओं की सबसे बड़ी खासियत है कि इसमें दर्शकों और कलाकारों का भेद नहीं रहता है, सब भागीदार होकर आनंद लेते हैं । ये भाव मुझे काफी आकर्षित करता है । अगर हमारी प्रस्तुतियों में ये भाव आ जाएं, तो रंगमंच काफी सशक्त करेगा । कम संसाधन में बेहतर प्रभाव पैदा करना भी लोक शैलियों से सीखा जा सकता था ।
खगौल में नुक्कड़ नाटक की शुरुआत 70 के दशक में हुई, लेकिन 80 के दशक में कई नुक्कड़ नाटक चर्चित रहे । वैसे यहाँ मंच नाटकों के प्रति अधिक रूझान रहा है । 2012 से साप्ताहिक नुक्कड़ नाटक श्रृंखला की शुरुआत हुई । अब तक 300 से अधिक नाटकों का प्रदर्शन हो चुका है, यह श्रृंखला आज भी जारी है ।हर शनिवार और रविवार ।
खगौल में नाटक के दर्शक हमेशा से रहे हैं । नाटक यहां की संस्कृति का बड़ा अंग रहा है । एन .सी .घोष इन्स्टीट्यूट के बंद होने के बाद आई शून्यता को काफी हद तक पाटते हुए नुक्कड़ नाटक से रंगकर्म का पुनः माहौल बनने लगा है । कुछ पुराने रंगकर्मी भी वापस लौटने लगे हैं ,नए लोग भी जुड़ रहे है । जिन प्रमुख नाटकों का मंचन हुआ और जिनमें में भागीदारी रही उनमें – फैसला, घासीराम कोतवाल, दुलारी बाई, एक था गदहा, भोमा, आदमी का गोश्त, गबरघिचोर, बेटी वियोग, होरी, पुनरावृति आदि प्रमुख है।
(अनीश अंकुर से बातचीत पर आधारित)