प्रोफेसर राजेंद्र कुमार ने इस दौरान आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई. यही नहीं उन्होंने कविता और कहानी के क्षेत्र में भी हाथ आजमाया और कई महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं के संपादन से भी जुड़े रहे. साल 1981 से 2003 तक उन्होंने ‘अभिप्राय‘ का संपादन किया, और लगभग दो वर्षों तक हिंदी विश्व विद्यालय वर्धा की पत्रिका ‘बहुबचन‘ के संपादन के अलावा ‘रचना उत्सव‘ के अतिथि संपादक की भूमिका निभाई. वह जन संस्कृति मंच से भी जुड़े और इसके राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, प्रदेश अध्यक्ष और राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बने. उनकी प्रकाशित संपादित कृतियां हैं- साही के बहाने समकालीन रचनाशीलता पर एक बहस, स्वाधीनता अवधारणा और निराला, प्रेमचंद की कहानियां: परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य, आलोचनात्मक पुस्तकें हैं- प्रतिबद्धता के बावजूद, साहित्य में सृजन के आयाम और विज्ञानवादी दृष्टि, आलोचना का विवेक, इलाचन्द्र जोशी (मोनोग्राफ), शब्द घड़ी में समय, अनंतर तथा अन्य कहानियां कथा संग्रह. इसके अलावा काव्य कृतियां हैं -ऋण गुण ऋण, हर कोशिश है एक बगावत, लोहा-लक्कड़ और लंबी कविता- आईना द्रोह.
दैनिक जागरण हिंदी हैं हम की ओर से राजेंद्र कुमार जी को जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत है उनकी एक कविता.
मुक्तिकाम गांधी
ओ मेरे देश के उत्सव-प्रिय लोगो
भूखे पेट भी
तुम
उत्सव मना लेते हो
प्रशंसनीय है
तुम्हारा उत्साह!
दबा कर घायल सीने की आह
तुमने खूब सीखा है
कि किस तरह करना चाहिए
उधार ली गई मुस्कराहटों से निबाह!
ओ मेरे देश के भाषण-प्रिय लोगो,
तुम सही अर्थों में मेरे अनुयायी हो
मेरा नाम लेते हो
अहिंसा से काम लेते हो
गिरता है आदमी
तो तुम आदमी को नहीं-
आदर्शों के मंच पर रखी
कुर्सी को/ थाम लेते हो
करते हो मेरी ही तरह
तुम भी
सत्य के साथ अपने प्रयोग,
झुकता है भीड़ में खोया हुआ सच
तुम
तन कर सलाम लेते हो!
ओ मेरे देश के लक्ष्य-बेधी लोगो,
एक गोडसे की गोली का
लक्ष्य बना था मेरा सीना
तुमने लक्ष्य बनाया मेरी आत्मा को,
स्थूल से सूक्ष्म की ओर
तुम्हारा यह अभियान
द्योतक है
तुम्हारे निरंतर सभ्य होते जाने का!
तुमने बार-बार
अपनी बंद मुट्ठियों को
हवा में उछाल कर
मेरी जय बोली है
मैं तो हिसाब भी नहीं रख सकता
तुम्हारे उपकारों का
कुछ फर्क नहीं पड़ता है लेकिन,
मेरे देश की धरती
क्लर्क-प्रसूता है!
बहुतेरे क्लर्कों ने
अपनी फाइलों में
दर्ज कर रखा होगा जरूर
पूरा ब्योरा नारों-
जय-जयकारों का!
यों इतना एहसान ही तुम्हारा
कुछ कम नहीं है, लेकिन क्या
इतना एहसान और न करोगे
अपने इस बापू पर
अपने इस गांधी पर
इस राष्ट्रपिता पर
कि-
इसे मुक्त कर दो!
इसके चरखे से कते हुए सूत में
इसी को बांध कर
तुमने डाल दिया है इसे
किसी खादी की दुकान में
और शांति के नाम पर
उड़ा दिए हैं
सच्चाई के कबूतर
स्वारथ के दूर तक
फैले मैदान में!
ओ मेरे देश के मुक्त चिंतको,
मुझे मुक्त कर दो-
मुक्त-
इस राष्ट्रपिता को
मुक्त कर दो!