यूं तो किसी भी कहानी का मकसद पाठकों के दिलों तक पहुँचना ही होता है, लेकिन कहानी का अंतिम सोपान उसका पन्नों से परदे तक का सफ़र ही माना जाता है | हर कहानीकार का सपना उसे ख़ूबसूरती से साकार करते हुए देखना होता है | अभी हाल ही में हिन्द युग्म के प्रकाशक शैलेश भरतवासी ने अपने बहुप्रशंसित उपन्यास ‘बनारस टॉकीज’ के फ़िल्मी अनुबंध की कहानी कुछ यूं बयां की,
“फ़िल्म निर्माण का रास्ता वैसे भी टीमवर्क और संसाधन-संपन्नता के घर से होकर गुज़रता है। इसलिए हम इस इंतज़ार में थे कोई ऐसा प्रोडक्शन हाउस या फ़िल्म निर्माता मिले जो पूरी भव्यता के साथ इस पर फ़िल्म बना सके। किताबों पर फ़िल्में बनना एक बेहद आम परिघटना है। ऐसा ख़ूब होता आया है। मगर हिंदी किताबों पर हिंदी फ़िल्में बनना कम हुआ। और पिछले 20-एक सालों से तो काफ़ी कम हो गया है।
बीते सप्ताह हमारा एक निर्माता के ऊपर भरोसा जगा कि वे अच्छा बजट भी लगा सकते हैं और पूरी संजीदगी और भव्यता के साथ इसे बड़े पर्दे के दर्शकों से जोड़ सकते हैं तो प्रारंभिक रस्म अदायगी हमने कर दी।”
बात सच है कि पिछले समय में हिंदी किताबों पर फ़िल्में बनाने का चलन काफी कम हुआ है| फिल्म निर्माण में अंग्रेजी और बंगाली उपन्यास ही बाजी मारते नज़र आते हैं, फिर वो चाहे चेतन भगत के उपन्यासों पर बनी फ़िल्में ‘थ्री इडियट’, ‘काई पोचे’, ‘टू स्टेट्स’ हों या अनुजा भट्ट के उपन्यास पर आने वाली फ़िल्में| ‘परिणीता’, ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी’ और फिर ‘देवदास’ के अनेक सालों में आये भिन्न-भिन्न संस्करण देखकर कहा जा सकता है कि बंगाली उपन्यास तो मानो फिल्मकारों के सदाबहार पसंदीदा रहे ही हैं|
हिंदी उपन्यास पर बनी फ़िल्में भी दर्शकों द्वारा उतने ही खुले दिल से सराही गई हैं, जिनमें कई अन्य फिल्मों के अलावा ‘कोहबर की शर्त’ पर बनी, ‘नदिया के पार’ और फिर ‘हम आपके हैं कौन’ को गिना जा सकता है, जिसने कमाई के नए कीर्तिमान स्थापित किये| फिर ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, ‘तामस’ और ‘पिंजर’ को कैसे भुला सकते हैं| लेकिन हाल के दौर में आई फिल्मों में विजयदान देथा की कहानी पर बनी फिल्म ‘पहेली’ पर ही नज़र अटकती है|
कुछ जो फ़िल्में हिंदी उपन्यासों पर बन भी रही हैं वो उतनी बड़ी संख्या में दर्शकों को खींचने में नाकाम रहती हैं| इस श्रृंखला में रामकुमार वर्मा के उपन्यास पर बनी फिल्म ‘ज़ेड प्लस’ को रखा जा सकता है|
हिंदी उपन्यासों से सिनेमा और दर्शकों की दूरी को पाटने का रास्ता नयी पीढ़ी को ही तय करना होगा| इस तरफ और संगठित रूप से प्रयास किये जाने की आवश्यकता है, और भी कई खूबसूरत कहानियां है, जिन्हें परदे तक पहुंचना चाहिए| पाठक के रूप में आप भी हाल-फ़िलहाल में पढ़ी ऐसी कुछ किताबों के नाम सुझा सकते हैं, जो बड़े परदे के सपने को साकार करने का माद्दा रखती हैं|