जागरण बेस्टसेलर: साहित्य के नए सितारे
हिंदी का पाठक पढ़ रहा है, साहित्य को खोज रहा है
संवाद के प्रमुख बिंदु
–हिंदी में लिखना और बोलना कठिन नहीं, कोई भी, कहीं भी उठा सकता है आवाज
–साहित्य में मूल की भावना का हृास न हो, छेड़छाड़ होगी तो आत्मा मर जाती है
–नए लेखकों के लिए मंच उपलब्ध है, कल्पना को सोच में बदलें और उसे उड़ान दें
–लव जेहाद पर हिंदी का साहित्यिक समाज न बोल रहा है न ही कलम चला रहा
–मशीनी अनुवाद में संवेदना की कमी, यह असल अनुवाद का स्थान नहीं ले सकता
नवीन पपनै, जागरण
देहरादून: साहित्य का सृजन और साधना जितनी कठिन है, उसे पढ़ने वालों की तलाश उतनी ही मुश्किल। पाठक क्या पढ़ना चाहता है, उसके मन-मस्तिष्क में क्या चल रहा है, यह एक विषय हो सकता है, लेकिन सुखद पहलू यह है कि पाठक पढ़ रहा है। साहित्य को खोज रहा है। उसकी पसंद अब बदल गई है, वह नया चाहता है। पारदर्शिता और चैतन्य भी। नवोदित लेखक उसकी इस चाहत को बहुआयामी बना रहे हैं। नई हिंदी के माध्यम से नई विधाओं को विस्तार दे रहे हैं। साहित्य के इन नए सितारों ने अभिव्यक्ति की रची-बसी दुनिया को और अधिक प्रफुल्लित किया है। मुंशी प्रेमचंद उनकी स्मृतियों में हैं, तभी तो उनके लेखन में धर्म भी है और इतिहास भी, प्रेम भी है और गांव भी। जागरण संवादी के तीसरे सत्र ‘जागरण बेस्टसेलर : साहित्य के नए सितारे‘ में राहुल चौधरी नील के संचालन में हुए संवाद में मंच पर मौजूद अनुवादक आशुतोष गर्ग, लेखक नवीन चौधरी और सर्वेश तिवारी ने साफगोई से नए लेखकों के सामने आने वाली चुनौतियों, समस्याओं को रेखांकित किया व समाधान सुझाए। तीनों ऐसे लेखक हैं, जिनकी किताबें ‘हिंदी हैं हम अभियान‘ के अंतर्गत जागरण बेस्टसेलर में चुनी गई हैं। इनमें आशुतोष गर्ग के दो उपन्यास महागाथा एवं सीतायण, नवीन चौधरी का जनता स्टोर और सर्वेश तिवारी का परत शामिल हैं। राहुल चौधरी ने साहित्य के मूल संकट पर जानना चाहा तो आशुतोष गर्ग ने इस पर सहमति जताई। यह भी कहा कि मूल ग्रंथ का अध्ययन नहीं होगा तो ऐसा ही होगा। मूल तत्व से छेड़छाड़ से वास्तविकता पर संकट आ जाता है। यह पाठकों से एक प्रकार का धोखा है। उन्होंने कहा कि अनुवाद विधा पहले भी पाठकों को पसंद थी और आज भी उसका उतना ही महत्व है। यदि ऐसा नहीं होता तो वर्ष 1913 में रविंद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि नोबेल नहीं पाती। अंग्रेजी में अनुवाद के बाद ही गीताजंलि को नोबेल मिला। गीतांजलि श्री की पुस्तक रेत समाधि भी अनुवाद के बाद ही बुकर जीत पाई। सर्वेश तिवारी ने लेखन को आमजन यानी लोक के लिए प्रिय बनाने पर जोर दिया। कहा कि पढ़ा वही जाएगा, जो आम आदमी की बात करेगा। दिल्ली में वातानुकूलित कमरों में बैठकर गांव-देहात में बैठे किसान की बात करने वाले लिख तो लेते हैं, लेकिन उनके साहित्य में सिर्फ कल्पना है, वास्तविकता से कोसों दूर। बात इंटरनेट मीडिया पर भी हुई। नवोदित लेखकों ने स्वीकार किया कि इससे किताबों की बिक्री बढ़ी है। आलोचना सुनने और कहने का अवसर मिलता है। इस बीच श्रोता दीर्घा से जिस वेग से प्रश्नों की बौछार हुई, उसी निरंतरता से उत्तर भी मिले।
धर्म पढ़ा जाता रहा है और रहेगा
सर्वेश तिवारी ने डंके की चोट पर कहा कि देश में 500 साल पहले भी धर्म पढ़ा जाता था और आज भी। आगे भी पढ़ा जाता रहेगा। कितने भी प्रगतिशील नारे लगा लें, आप कैसे भूल सकते हैं कि प्रेमचंद के पहले उपन्यास सेवा सदन और अंतिम उपन्यास गोदान में धर्म का चित्रण साफ दिखाई देता है। दोनों उपन्यासों में धर्म की ऐसी लकीर खींची गई है, जो पात्रों को उनके दायित्व और कर्तव्यों का पाठ पढ़ाती है।
पौराणिक और आध्यात्मिक साहित्य
पौराणिक और आध्यात्मिक साहित्य के लेखन में आए अचानक बदलाव पर 40 से ज्यादा किताबों का अनुवाद कर चुके आशुतोष गर्ग गर्व से कहते हैं कि पौराणिक लेखन खूब पढ़ा जा रहा है। आप यह क्यों भूल जाते हैं कि होश संभालते बच्चे को जब कहानियां सुनाने का दौर शुरू होता है तो रामायण और महाभारत की कहानी से ही शुरुआत होती है। यही से संस्कार और संस्कृति की विकास यात्रा शुरू होती है। कोई परिवर्तन नहीं आया है, बस विस्तार हुआ है। लोग खोजकर यह साहित्य पढ़ रहे हैं।
प्रकाशक और लेखक
नवीन चौधरी ने इस बात पर चिंता जताई कि पहले की पीढ़ी ने नए लोगों को खत्म करने का प्रयास किया है। किसी ने औसत किस्म के लोगों को आगे बढ़ाया तो किसी ने विचारधारा को थोप दिया। इससे पाठकों का जुड़ाव नहीं हो पाया। यह वैचारिक तानाशाही जैसा है। विचारधारा की एक ऐसी परिधि बना दी गई, जो घातक साबित हुई। हिंदी के लेखक और प्रशासक भाई-बहन जैसा रिश्ता बनाना चाहते हैं।