पहाड़ की लोक संस्कृति
भूगोल से जन्म लेकर मूल्यों से परिचित कराती है लोक संस्कृति
संवाद के मुख्य बिंदु
– ‘जागरण संवादी’ के दूसरे दिन श्रोताओं को आनंदित कर गई ‘पहाड़ की लोक संस्कृति’ पर हुई चर्चा
– लोक के पुरोधा बोले, सामाजिकता की गंगोत्री, सभ्यता का प्रवेशद्वार, भावाभिव्यक्ति का आईना है लोक
– कहा, हजाारों वर्षों की सभ्यता के पश्चात हम जिस आचरण का अनुकरण कर रहे हैं, वही है संस्कृति
– पहाड़ की लुप्त होती धरोहर के संरक्षण-संवर्धन को हर छोटी-छोटी विधा का दस्तावेजीकरण है जरूरी
दिनेश कुकरेती, जागरण
देहरादून: संस्कृति के दो रूप हैं, भौतिक और आध्यात्मिक। दोनों की ही उत्पत्ति भूगोल से होती है। यानी खेत, खलिहान, मकान, मंदिर, तीज,
सत्र का विषय था ‘पहाड़ की लोक संस्कृति’ और इसे परिभाषित करने के लिए संवादी के मंच की शोभा बढ़ा रहे थे लोकगायक पद्मश्री प्रीतम भरतवाण, लोक संस्कृति के अध्येता डा. डीआर पुरोहित, साहित्यकार एवं पूर्व डीजीपी अनिल रतूड़ी और लोककला के पारखी नंदलाल भारती। इन सभी के विचारों को लयबद्ध करने की जिम्मेदारी थी लोक के संरक्षण में अहम भूमिका निभा रहे अनिल भारती की। चर्चा की शुरुआत इसी प्रश्न से हुई कि लोक क्या है और इसका उत्तर देने का प्रयास किया साहित्यकार अनिल रतूड़ी ने। वह कहते हैं लोक सामाजिकता की गंगोत्री है, सभ्यता का प्रवेशद्वार है और भावाभिव्यक्ति का आईना है। लेकिन, संस्कृति का सबसे वृहद रूप सनातन है, क्योंकि वह गंगा-यमुना की तरह अविरल है। इन दोनों नदियों का उद्गम है उत्तराखंड हिमालय। हमारी प्रमुख जिम्मेदारी इसी हिमालय के संरक्षण की है। इसके संवर्धन की है।
रतूड़ीजी की भावनाओं से स्वयं को जोड़ते हुए डा. पुरोहित कहते हैं, लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी यहां आते रहे और संस्कृति समृद्ध होती रही। कोल, भील, किरात, यक्ष, गंधर्व,
अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए वह जागर के माध्यम से अभिव्यक्ति देते हुए कहते हैं, ‘उदंकार ह्वे ग्ये भगवान बदरी-केदार, उदंकार ह्वे ग्ये हे नारैण केदार कांठों मा’ (भगवान बदरी-केदार के आंगन में उजाला हो गया है, हे नारायण केदार हिमालय में उजाला हो गया है।) लेकिन, लोककला पारखी नंदलाल भारती थोड़ा हटकर सोचते हैं। वह कहते हैं, संस्कृति को प्रस्तुत करने में कुछ घंटे लगते हैं, उसे समझने के लिए पूरी जिंदगी खपानी पड़ती है, जबकि उसे बचाने में पीढ़ियां खप जाती हैं। संस्कृति गांव के आंगन में है। यही आंगन संस्कृति की पाठशाला है, पौधशाला है और अनुसंधान का केंद्र भी है। इसी आंगन को बचाने की जरूरत है और साथ ही जरूरत है लोकवाद्यों को बचाने की। सौभाग्य से जौनसारी समाज अपनी संस्कृति को बचाने के लिए तन, मन, धन से प्रयासरत है। यही वजह है कि गांव, छानी व मजरों से होती हुई जौनसारी लोक संस्कृति आज देश-दुनिया में उत्तराखंड का गौरव बढ़ा रही है।
लोक पर हो रही इस चर्चा ने श्रोताओं को आनंदित कर दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे सभी की चाह हो कि यह चर्चा अनवरत चलती रहे और उनके आनंद को द्विगुणित करती रहे। लेकिन, समय की अपनी सीमाएं हैं, अपनी मर्यादाएं हैं। यह बात मंचासीन पुरोधा भी समझते हैं। इसलिए चर्चा को समेटते हुए वह कहते हैं, हर छोटी-छोटी विधा का दस्तावेजीकरण किया जाना जरूरी है। इसी से लुप्त होती धरोहर के संरक्षण-संवर्धन का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके लिए व्यक्ति, समाज और सरकार के स्तर पर भी प्रयास होना चाहिए। लेकिन, सभी श्रोता चाहते हैं कि बात लोक से शुरू हुई है तो लोक के रंग में डूबकर ही विराम भी ले। उनकी इन्हीं भावनाओं का आदर करते हुए प्रीतम ने भगवती पार्वती के जन्म से विवाह तक की ऐसी मनभावन लहरियां छेड़ीं कि श्रोताओं का तन-मन झंकृत हो उठा। सभी आल्हादित होकर झूमने लगे और इसी के साथ इस सत्र ने विराम लिया।