काशी और देवभूमि
अगर इतिहास गड़बड़ हुआ तो आईने में भी विकृत दिखेगा हमारा चेहरा
– साहित्य व समाज का दर्पण है इतिहास, बिना विचारधारा के वास्तविक तथ्यों को समाज के सामने रखें
– नेहरूवादी और वामपंथी इतिहासकारों ने प्राचीन संस्कृति के सत्य को दबाए रखा
– दैनिक जागरण के संवादी कार्यक्रम में प्रसिद्ध इतिहासकार विक्रम संपत ने बेबाकी से रखे विचार
– 70 वर्षों में काशी के पुनरूत्थान के लिए के लिए किसी ने नहीं सोचा
– सदियों पहले भी भारतवर्ष की एकता के मिलते हैं तमाम साक्ष्य
गणेश जोशी, जागरण
देहरादून: इतिहास को लेकर विवाद आम है। इतिहासकार पर कभी दरबारी होने के आरोप लगे तो कभी तेरा वाला इतिहास तो कभी मेरे वाले इतिहास के नाम पर मतभेद उभरे। जबकि इतिहास समाज व सभ्यता का दर्पण है। इतिहास ही हमें अपनी संस्कृति, सभ्यता का परिचय कराता है। जड़ों से जुड़ाव का भी यही बड़ा माध्यम है। अगर यही इतिहास गड़बड़ होगा, विशेष विचारधारा से प्रेरित होकर किसी धर्म, संप्रदाय को बदनाम करने की कोशिश होगी, तो ऐसे इतिहास में हमारा चेहरा भी विकृत ही दिखेगा। स्वतंत्रता के बाद भी हमें भारत के इतिहास की वास्तविकता से दूर रखा गया। सही मायने में सच्चे इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि किसी तरह की राजनीति व विचारधारा से हटकर वास्तविक तथ्यों को समाज के सामने रखना। यह बौद्धिक विमर्श शनिवार को फेयरफील्ड बाय मैरियट मालसी में दैनिक जागरण के संवादी कार्यक्रम में हुआ। अभिव्यक्ति के उत्सव पर सजे मंच पर ‘काशी और देवभूमि’ विषय पर आयोजित दूसरे सत्र में प्रसिद्ध इतिहासकार विक्रम संपत ने लेखक राहुल चौधरी के साथ इतिहास के तमाम विरोधाभाषा के साथ काशी के संदर्भों पर विस्तृत चर्चा की। श्रोताओं ने भी विक्रम की ओर से प्रस्तुत तथ्यों पर न केवल तालियां बजाई बल्कि पूरा समर्थन भी दिया।
लेखक राहुल ने विक्रम संपत की हाल में ही प्रकाशित प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्रतीक्षा शिव की: काशी ज्ञानवापी काशी के सत्य का उद्घाटन’ पुस्तक पर चर्चा छेड़ दी और पहला ही प्रश्न किया कि काशी ही क्यों? शिव की भूमि यानी देवभूमि उत्तराखंड की राजधानी से विक्रम ने कंकड़-कंकड़ में शंकर वाली प्रसिद्ध आध्यात्मिक, सांस्कृतिक नगर काशी पर पुस्तक लिखने के अनुभव साझा किए। साथ ही, स्वतंत्रता से सदियों पहले तक काशी का पूरे भारतवर्ष से जुड़ाव के तथ्यों को प्रामाणिकता के साथ सामने रखा। स्कंदपुराण में जिस काशी का महात्म्य वर्णित है। ऐसा पवित्र स्थल जहां मृत्यु होना पुण्य माना जाता है, मृत्यु को अछूत नहीं माना गया। वाराणसी के ऐसे विश्वनाथ मंदिर पर 1033 में महमूद गजनवी के शासनकाल के समय से आजादी तक हुए हमले की भयावह त्रासदी का वर्णन किया, जिसे सुन श्रोता भी अचंभित हो गए। संवाद करते हुए इतिहासकार ने हमले के बाद मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए हुए प्रयास की आशावादी झलक दिखाई। ब्रिटिश काल और उससे पहले भारतवर्ष की एकता का शानदार उदाहरण देते हुए विक्रम कहते हैं, 1212 में सुदूर बंगाल के राजा विश्वरूप ने फिर से विश्वनाथ मंदिर बनवाया। उसी समय गुजरात के व्यापारी वस्तुपाल ने एक लाख रुपये की राशि भेंट की। दक्षिण भारत स्थित कर्नाटक के राजा ने एक गांव हिब्बाली से प्राप्त कर हिंदुओं के इस शिवालय को देने का निर्णय लिया था। चर्चा को आगे बढ़ाते हुए राहुल ने हिंदुओं व सिखों के बीच संबंध और एक श्रोता ने हिंदुओं की ओर से मंदिरों का तोड़े जाने को लेकर उठते प्रश्नों का उत्तर जानना चाहा। इस पर इतिहासकार विक्रम ने बताया कि सिख राजा रंजीत सिंह ने मंदिर बनवाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इक्का-दुक्का जिन हिंदुओं पर मंदिर तोड़ने के आरोप लगाए जाते हैं। उस समय के राजाओं ने उन मंदिरों को तोड़ा नहीं था, बल्कि अपने राज्य में भव्य मंदिर के रूप में स्थापित किया था। इसके तमाम साक्ष्य उपलब्ध हैं। जबकि कांग्रेसी, नेहरूवादी व वामपंथी इतिहासकारों ने सत्य को दबाया। हिंदुओं से जुड़े वास्तविक तथ्यों की अनदेखी की। इसका एक उदाहरण कांग्रेस नेता विश्वंभर नाथ पांडेय की पुस्तक में मिलता है। इस पुस्तक में उन्होंने विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने की मनोहर कहानी गढ़ डाली थी। लिखा था कि औरंगजेब जब हिंदू राजाओं के साथ आगरा से बंगाल तक काफिला लेकर जा रहा था। उस समय कच्छ की रानी गायब हो गई थी। खोजने पर पता चला कि वह मंदिर के गर्भगृह में निर्वस्त्र हालात में है। पंडों पर कई आरोप लगाए गए। औरंगजेब की अनिच्छा के बावजूद हिंदू राजाओं के कहने पर मंदिर को तोड़ा गया था। जबकि इसका मूल स्रोत का कहीं भी स्पष्ट नहीं है। ऐसे ही झूठ फैलाया गया। हमारे पूर्वजों की कहानियों, इतिहास को निर्लज्जता से प्रस्तुत किया गया। 70 वर्षों में काशी के पुनरूत्थान के लिए के लिए किसी ने नहीं सोचा। इतिहासकार ने पौराणिक संदर्भों का उल्लेख इस तरह किया कि वह लोगों के दिल में गहरे उतरते चले गए।