नई दिल्लीः यह हिंदी साहित्य के शोधार्थियों और इतिहास व विमर्श में रूचि रखने वालों के लिए यह एक खास तरह का अकादमिक व्याख्यानमाला है, जिसे वाणी प्रकाशन शिक्षा शृंखला के तहत काशी हिंदू विश्वविद्यालय के डॉ प्रभाकर सिंह के सहयोग से आयोजित कर रहा है. 'हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' नामक इस आयोजन का सातवां व्याख्यान 'स्त्री-विमर्श और स्त्री-लेखन' पर था. इस व्याख्यान में स्त्रीवादी समीक्षक और आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने स्त्री विमर्श और स्त्री लेखन पर कई महत्त्वपूर्ण बातें कीं. उन्होंने कहा कि स्त्री विमर्श वाद-विवाद नहीं संवाद है. यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था का पुनरीक्षण करता है. कटाक्ष के लहजे में उन्होंने कहा कि स्त्री विमर्श गायनी वार्ड नहीं है. यह परिवार, विवाह, धर्म, न्याय, व्यवस्था, मीडिया के आलोक में स्त्री-पुरुष के संवाद और साथ ही मनुष्यता की पड़ताल है. उन्होंने यह दावा किया कि पश्चिम का स्त्री विमर्श जिस तरह से विकसित होता है उसी के समानांतर भारतीय स्त्रीवादी विमर्श का भी विकास होता है.
भारतीय स्त्री विमर्श से जुड़े तथ्यों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि अट्ठारह सौ पचास में सावित्रीबाई फुले और उसके बाद 1970 में नये स्त्री अधिकारों के साथ एक नयी चेतना आती है, फिर 1990 के बाद का दौर स्त्री विमर्श का एक नया उन्मुक्त और व्यापक दौर है. हिंदी के स्त्री विमर्श पर बातचीत करते हुए और उसके स्त्री लेखन के बारे में रोहिणी अग्रवाल का कहना था कि स्त्रीवादी लेखन में उसी दौर में लिखी गयी पुरुष रचनाएं, जिनमें स्त्री चेतना को दर्ज़ किया गया है, को सामने रखकर पाठ करने से हमारे सामने नये निष्कर्ष आएंगे. उन्होंने सीमंतिणी उपदेश और भाग्यवती, भारतेन्दु हरिश्चंद्र के लेखन और मल्लिका देवी के लेखन, प्रेमचन्द के स्त्री सम्बन्धी लेखन और शिवरानी देवी के लेखन को एक-दूसरे के सामने रखकर पढ़ने की वकालत की. आधुनिक स्त्रीवादी लेखन में महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान का स्वर सबसे मुखर है. दूसरा पड़ाव मन्नू भण्डारी, उषा प्रियंवदा और ममता कालिया के यहां दिखाई देता है तो तीसरे पड़ाव में मृदुला गर्ग, चन्द्रकान्ता अलका सरावगी, मैत्रेई पुष्पा जैसी रचनाकारों ने स्त्री जीवन को नए परिवेश में सृजित किया. 90 के बाद का लेखन स्त्री अस्मिता के सवाल को बड़े सरोकारों के साथ उठाता है. यों स्त्री विमर्श सिर्फ़ स्त्री अस्मिता का विमर्श ना बन जाये इसलिए इसमें व्यापक सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना की उपस्थिति का होना भी उतना ही ज़रूरी है.