जागरण संवाददाता, नई दिल्ली: आज से 100 साल पहले हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में हिंदी की पढ़ाई आरंभ हुई थी। उसके पहले 1887 में बर्लिन विश्वविद्यालय में हिंदी की पढ़ाई शुरू हुई थी। आज यूरोप में हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है। ब्रसल्स और हैम्बर्ग के एयरपोर्ट पर देवनागरी में लिखी सूचनाएं आपको मिलेंगी। बैंक और रेस्तरां में हिंदी का प्रयोग दिखने लगा है। स्विट्जरलैंड में भी दुकानों पर हिंदी के बोर्ड दिख जाएंगे। यूरोप में हिंदी का बोलबाला बढ़ रहा है। ये कहना है जर्मनी के हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक राम प्रसाद भट्ट का जो दैनिक जागरण के हिंदी हैं हम के मंच पर अपनी बात रख रहे थे। साथ ही उन्होंने जोड़ा कि यहां के विश्वविद्यालयों में हिंदी के विभाग कम हो रहे हैं। इसके आर्थिक कारण भी हो सकते हैं। 

राम प्रसाद भट्ट के मुताबिक भारतीय संस्कृति के आकर्षण में विदेशी छात्र हिंदी पढ़ने आते हैं। भारत में परिवार की अवधारणा से यूरोप की नई पीढ़ी प्रभावित है। वो जब देखते हैं कि पूरा परिवार साथ बैठता है, साथ खाना खाता है, त्योहार में सब इकट्ठे होते हैं, तो उनको बहुत अच्छा लगता है। वो इस मानसिकता को समझने के लिए हिंदी सीखना चाहते हैं। वो भारत के त्योहारों के बारे में जानना चाहते हैं। होली, दीवाली के अलावा जन्माष्टमी और शिवरात्रि के बारे में जानना चाहते हैं। कुछ छात्र भारत की ज्ञान परंपरा को जानने के लिए भी हिंदी सीखते हैं।

12 से 15 प्रतिशत छात्र हिंदी फिल्मों के आकर्षण की वजह से हिंदी सीखने आते हैं। हिंदी के प्रचार प्रसार में हिंदी फिल्मों की भूमिका को भट्ट रेखांकित करते हैं। उन्होंने बताया कि यूरोप और अफ्रीका में हिंदी फिल्मों ने हिंदी भाषा को विस्तार दिया है। अब तो जर्मनी में टेलीविजन पर भी हिंदी फिल्में दिखाई जाने लगी हैं। उन्होंने हिंदी शिक्षण में भी फिल्मों के मददगार होने का दिलचस्प अनुभव साझा किया। भट्ट के मुताबिक वो लोग छात्रों को हिंदी की गिनती सिखाने के लिए तेजाब फिल्म में माधुरी दीक्षित के एक दो तीन..गाने का उपयोग करते हैं।  कई बार फिल्म थ्री इडियट्स के क्लासरूम सीन को रिक्रिएट करते हैं।

राम प्रसाद भट्ट ने हिंदी के विस्तार में अनुवाद की भूमिका को महत्वपूर्ण माना। उनका मानना है कि हिंदी की कृतियों का विश्व की अलग अलग भाषाओं में स्तरीय अनुवाद किया जाना चाहिए। इससे भी हिंदी के प्रति वैश्विक स्तर पर उत्सुकता का वातावरण बनेगा। उन्होंने इस बात की ओर संकेत किया कि अभी होनेवाले अधिकतर अनुवाद स्तरीय नहीं हैं। अपनी भाषा को लेकर बहुत ईमानदार रहने की जरूरत है। उन्होंने इस संबंध में यहूदियों का उदाहरण दिया। यहूदियों का हर प्रकार का विमर्श उनकी अपनी भाषा में होता है। वो अपनी भाषा को लेकर असुविधाजनक प्रश्न भी उठाते हैं , फिर विमर्श से उसका हल ढूंढने की कोशिश करते हैं। वो अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति, अपने समाज का सवाल भाषा के माध्यम से ही हल करने की कोशिश करते हैं। इसके लिए वो दूसरी भाषा का मुंह नहीं जोहते ।

राम भट्ट ने कहा कि बिना हिंदी को जाने भारत को जानना कठिन है। अगर कोई ये सोचता है कि भारत को अंग्रेजी के माध्यम से समझा जा सकता है तो ये उनकी भूल है। आप किसी भी देश को किसी भी समाज को उस देश या उस समाज की भाषा में ही समझ सकते हैं। ये सिद्धांत राजनीति से लेकर व्यवसाय तक पर लागू होता है। राम भट्ट इस बात से भी प्रसन्न दिखे कि देश के प्रधानमंत्री जब विदेश जाते हैं तो हिंदी में बात करते हैं। उनके मुताबिक वो पिछले बीस साल से विदेश में हैं। पहले जो मंत्री या प्रधानमंत्री विदेश आते थे वो अंग्रेजी में बात करते थे लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ये बदला। अब सभी मंत्री और प्रधानमंत्री हिंदी में बात करते हैं। इसका बहुत असर पड़ा है।

उल्लेखनीय है कि हिंदी हैं हम दैनिक जागरण का अपनी भाषा को समृद्ध करने का एक उपक्रम है। विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी हैं हम के अंतर्गत विश्व के अलग अलग देशों के हिंदी सेवियों, राजनयिकों और साहित्यकारों से बातचीत की जा रही है।