माँ पर केन्द्रित साहित्य में प्रायः मातृत्व के भावनात्मक पक्षों को उजागर करने पर विशेष जोर देखने को मिलता है, परन्तु अंकिता जैन की पुस्तक ‘मैं से माँ तक’ एक स्त्री के माँ बनने की यात्रा में मौजूद छोटे–बड़े सभी पहलुओं की एक गंभीर प्रस्तुति है। पुस्तक में कुल बीस अध्याय हैं, जिनमें आज की औरतों के मातृत्व संबंधी द्वंद्वों, गर्भावस्था के दौरान होने वाले शारीरिक–मानसिक बदलावों, चिकित्सकीय चुनौतियों, अंधविश्वासों, पारिवारिक सहयोग के महत्व जैसी तमाम बातों पर गहन चर्चा की गयी है। संस्मरण विधा के निकट लगने वाले इस वर्णन में लेखिका ने अपने माँ बनने की आद्योपांत प्रक्रिया को प्रस्तुत किया है, जिसमें जहां-तहां वे विषयानुसार अन्य लोगों के अनुभवों का भी जिक्र करती चली हैं।
हिंदी साहित्य में ‘माँ’ विषयक लेखन की खासियत और दिक्कत दोनों रही है कि इसमें प्रायः मातृत्व के भावनात्मक पक्षों पर अधिक जोर दिया जाता है। दरअसल माँ का किरदार ही कुछ ऐसा होता है कि उसकी चर्चा में भावुक पक्षों की अनदेखी नहीं की जा सकती। लेकिन इस कारण अक्सर मातृत्व के अन्य पक्षों की उपेक्षा हो जाती है। यह पुस्तक उन्हीं पक्षों पर बात करती है। इसमें गर्भधारण करने से लेकर बच्चे को जन्म देने तक बतौर माँ एक स्त्री की यात्रा का वर्णन किया गया है, जिस दौरान मातृत्व के भावनात्मक पक्षों के साथ–साथ उसके व्यावहारिक और तकनीकी पक्षों पर भी सविस्तार चर्चा होती है।
आज के समय में आधुनिक और शिक्षित स्त्रियों के ही नहीं, बल्कि पुरुषों के भी समक्ष शादी के बाद यह एक प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि बच्चा कब करें। चूंकि स्त्रियों पर प्रजनन प्रक्रिया का अधिक भार होता है, इसलिए इस प्रश्न की चुनौती उनके लिए अधिक होती है। परिवार के बड़े–बूढ़ों भावनात्मक दबाव होता है कि जल्दी से घर में किलकारी गूँज जाए, और अक्सर इस दबाव के आगे स्त्रियों को अपनी इच्छाओं की तिलांजलि देनी पड़ती है। इस स्थिति को रेखांकित करते हुए ‘माँ बनूँ या नहीं’ अध्याय में अंकिता लिखती हैं, “शादी के नौवें महीने में बच्चा हो जाए तो गंगा नहा लो’ इस तरह की बातें जब बुजुर्ग महिलाएं करती हैं तो हम जैसी बहुएं चिढ़ने लगती हैं, लेकिन अगर हमसे कोई पूछे कि ‘अच्छा चलो, अभी नहीं तो बताओ कब चाहिए बच्चा’ तो भी शायद हम ठीक–ठीक जवाब नहीं दे पाएंगी”।
हालांकि यह पुस्तक माँ पर केन्द्रित है, लेकिन इसमें पिता बनने के क्रम में एक पुरुष में किस प्रकार के बदलाव आते हैं और उसे कैसे अकेले ही उनसे तालमेल बिठाना पड़ता है, इस विषय पर ‘प्रेग्नेंट पिता’ नामक एक पूरा अध्याय ही रखा गया है, जिसमें पुरुषों की चुनौतियों को समझने और समझाने की ईमानदार कोशिश की गयी है। इस अध्याय में अंकिता लिखती हैं, “माँ बनने में नौ महीने लगते हैं। धीरे–धीरे माँ अपने बच्चे को समझना, उसे महसूस करना और उससे प्यार करना सीखती है। लेकिन हम चाहते हैं कि पिता यह सब पहले दिन से ही करने लगे। यह तो सरासर नाइंसाफी हुई न? हमें बन रहे पिता को भी पिता बनने के लिए उतना ही समय देना चाहिए जितना माँ को दिया जाता है।“ इसके अलावा पुत्रीवती भवः, प्रेगनेंसी हनीमून, फैशन में है सी–सेक्शन, मैं कैसी माँ बनूंगी आदि पुस्तक के कुछ उल्लेखनीय अध्याय हैं।
विशेष बात यह है कि गर्भावस्था की शारीरिक परेशानियों और चुनौतियों की चर्चा के क्रम में लेखिका ने बस ऊपर–ऊपर की बातें नहीं की हैं, बल्कि विषय से सम्बंधित तकनीकी पक्षों को भी टटोलने की कोशिश की है। हालांकि कहीं–कहीं इस तरह के वर्णनों का अतिरेक होने से पुस्तक किसी ‘जच्चा–बच्चा स्वास्थ्य पुस्तिका’ जैसा अनुभव देने लगती है, लेकिन ऐसा बहुत कम ही जगहों पर हुआ है।
यह ठीक है कि ये पुस्तक मातृत्व पर केन्द्रित होने के कारण स्त्रियों के लिए अधिक पठनीय है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य पाठकों के लिए इसका कोई महत्व नहीं। मातृत्व की यात्रा पर चल रही या चलने वाली स्त्रियाँ निस्संदेह इसकी मुख्य पाठक हैं, परन्तु गर्भावस्था के दौरान पत्नी के प्रति आचार-व्यवहार की समझ सहित इसके अन्य तकनीकी पक्षों को जानने के लिहाज से ये पुस्तक पुरुषों के लिए भी बराबर पठनीय है।
( समीक्षक पीयूष द्विवेदी)
पुस्तक – मैं से माँ तक
लेखिका – अंकिता जैन
प्रकाशक – राजपाल एंड संज
मूल्य – 175 रुपये