जयपुर: राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा आयोजित समानांतर साहित्य महोत्सव के 'भीष्म साहनी मंच पर मुख्यधारा और बहुजन साहित्य की प्रगतिशील धारा' में बहस में शामिल थे हीरालाल राजस्थानी, शरण कुमार लिम्बाले और जयप्रकाश कर्दम । हीरालाल राजस्थानी ने अपने संबोधन में कहा " आजकल हर तरफ आम्बेडकर के नाम पर व्यक्ति पूजा होने लगी है। आम्बेडकर का अगरबत्ती लगाना सही दृष्टिकोण नही है। ये फिर वही ब्राह्मणवादी मानसिकता है। "
हीरालाल के इस टिप्पणी के जवाब में शरण जुमार लिम्बाले ने अपने संबोधन में कहा "कुछ लोगों को अगरबत्ती दिखाने दो उससे कुछ नहीं होता । बाबा साहब के कारण दलित साहित्य का आंदोलन आया, दलित पैंथर का आंदोलन आया, बाबा साहब ने बताया कि हम इंसान हैं। हम अछूत नहीं हैं , ये वाणी बोल रहा है नया दलित। यदि बाबा साहब न होते तो मैं जानवर चरा रहा होता। मेरे कपड़े, मेरा पाउडर मत देखो मेरी वेदना देखो, जैसे तड़प कर बोल रहा हूँ ये देखो। यदि क्रांति की बात करने से कुछ बातें छूटती हैं। प्रगतिशील आंदोलन न होता तो हम न होते। प्रगतिशील विचार के लोगोंको देख कर आश्चर्य होता कि ये ऊंची जाति का होकर भी हमारी बात क्यों कर रहा है ? पहली लात, पहला धक्का तो प्रगतिशील धारा ने दिया"
प्रगतिशील धारा के संबंध में आगे शरण कुमार लिम्बाले ने कहा " लेकिन प्रगतिशील धारा अभी तक प्रेमचन्द में ही अटका है। प्रगतिशील धारा की कभी कभी आलोचना करने पड़ती है, ये एक रणनीति के तहत करनी पड़ती है ताकि अपने लोगों को शिक्षित किया जा सके। अकेला दलित क्रांति नहीं कर सकता। दलित के साथ आदिवासी, स्त्री व वामपंथी धारा मिलकर ही कोई बदलाव ला सकता है। यदि आप कहते हैं कि मैं दलित होकर सर्फ दलित के लिए लिखता हूँ तो ये आपके झूठा आरोप लगा रहे हैं।"
दलितों के लिए सौंदर्यशास्त्र की बात पर शरण कुमार लिम्बाले ने कहा "सौंदर्यशास्त्र एक षड्यंत्र है। कहा जाता है कि मैं सरस्वती का आशीर्वाद लो अरे जब मैं सरस्वती के मंदिर में प्रवेश ही नहीं कर सकता तो आशीर्वाद कैसे लूंगा?" मॉडरेटर के इस प्रश्न दलित साहित्य में क्यों इतना आक्रोश है, गाली गलौज की भाषा रहती है ?
शरण कुमार लिम्बाले की टिप्पणी थी " यदि मैं गाली न देता तो मेरे अंदर आत्मविश्वास नहीं आता। हमारी कविता ऐसी थी कि मैं तेरे बहन, बाप, ईश्वर को गाली देते हैं। हम हजारो सालों से डरे थे अब कम से कम गाली ही देकर खुद पर विश्वास दिलाते है। हमें लिखने, बोलने , ओढ़ने नहीं दिया। हमारी भाषा को गंदी कहकर नष्ट कर दिया। मैं अपनी भाषा में गाली देकर भाषा आ गया। ब्राह्णण लोगों की भाषा में इतना रस, छंद होता है कि हम कभी उसकी तुलना ही नहीं कर सकती।" लिम्बाले ने साहित्य को आनंद नहीं स्वाधीनता के लिए मानते हुए कहा " ब्राह्मणवादी लोग कहते हैं कि साहित्य से आनंद नहीं मिलता क्रांति स्वतंत्रता के लिए होती है। आनंद से बड़ी चीज स्वाधीनता होती है। दलित साहित्य स्वाधीनता के लिए है आनंद के लिए नहीं। दलित साहित्य पढ़कर न्याय की भावना होती है। अन्याय किसी पर हो स्त्री हो किसी जाति का हो उसके साथ खड़ा होना दलित साहित्य का मकसद है।