बेगूसराय: क्रान्तिकारी कवि व एक्टिविस्ट रामेश्वर प्रशान्त का निधन 6 जून को सुबह साढ़े दस बजे बेगूसराय के गढ़हरा में हो गया। काफी अरसे से वे बीमार थे। जब हिन्दी में अकविता व अकहानी का दौर था और साहित्य में राजनीति से परहेज की प्रवृति हावी थी, उन दिनों प्रशान्त जी ने गढ़हरा से लघु पत्रिका ‘द्वाभा’ निकाली थी।
रामेश्वर प्रशान्त का जन्म 2 जनवरी 1940 को बेगूसराय जिले के सिमरिया घाट में हुआ था। यह साहित्य और राजनीति की उर्वर भूमि थी। उन्होंने काव्य सृजन 1960 के दशक में शुरू किया। प़त्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं छपती रहीं। जीवन के अन्तिम दिनों तक वे समाज को बदलने की लड़ाई में शामिल रहे। आंदोलनों के योद्धा के साथ वे कलम के योद्धा भी थे। 1972 में जब बलिया से ‘युवालेखन’ का प्रकाशन शुरू हुआ। वे उसके प्रधान संपादक बने।
रामेश्वर प्रशान्त का पहला काव्य संकलन पाच दशक की लम्बी काव्य यात्रा तथा 75 की उम्र पार कर जाने के बाद आ पाया। यह संग्रह है ‘सदी का सूर्यास्त’। इसके दो खण्ड है। पहले खण्ड में 60 कविताएं हैं, वहीं दूसरे में गीत, गजल और मुक्तक हैं। मुक्तिबोध कविता के बारे में कहते हैं ‘नहीं होती खत्म/कविता कभी खत्म नहीं होती/वह आवेग त्वरित कालयात्री/परम स्वाधीन विश्व शास्त्री/गहन गंभीर छाया आगमष्यित की/लिए वह जन चरित्री’।
रामेश्वर प्रशान्त की काव्यभूमि कविता की इसी अवधारणा से निर्मित हुई है। ‘मेरी कविता’ में वे स्पष्ट कर देते हैं कि उसकी सृजन प्रक्रिया क्या है तथा इसके पीछे कवि का उद्देश्य क्या है। कवि की नजर में सृजन स्वतःस्फूर्त से ज्यादा सचेतन क्रिया है। समाज, समय और जीवन का कोई प्रसंग, घटना या विचार अपने आप में कविता का कारण नहीं बनता। वह जब मन-मस्तिष्क में गहरे उतरता है, भाव व संवेदना की आंच में पकता है तब जाकर वह कविता के रूप में बाहर आता है। वे कहते हैं: ‘पाक चढ़े धागे की तरह/जब कोई बात पक जाती है/तब कविता जन्म लेती है’।
रामेश्वर प्रशान्त की कविता में उनका विश्व दृष्टिकोण सामने आता है। श्रमिक वर्ग के शोषण उत्पीड़न के लिए वे विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था को जिम्मेदार मानते थे। जब समाज वर्गों में बंटा हो और उनके स्वार्थ आपस में टकरा रहे हों, ऐसे में कवि तटस्थ नहीं रह सकता। उसे अपना पक्ष स्पष्ट करना होता है कि वह किसके साथ खड़ा है और किसके प्रतिपक्ष में। कविता भी इतिहास बदलने की जंग में शामिल हो सकती है। कवि का काम अपने सृजन को इस जंग का औजार बना देने का होना चाहिए। रामेश्वर प्रशान्त अपनी बात कविता में यूं बयां करते हैं:
मेरी कविता/जो इतिहास बदलने की मशीन का
एक पुर्जा बन जाना चाहती है……
कई-कई बार/लाल भट्ठियों में पकती है
खेतों में खटने वाले किसानों के पास दौड़ती है
आधा पेट खाकर/काम करने वाले मजदूरों से बतियाती है
और उनका चारण बन जाना चाहती है
जिनकी अपनी धरती नहीं
कोई घर नहीं/कोई देश नहीं/अपना कोई भविष्य नहीं