'रिफ़्यूजी कैंप' की आशीष कौल की पहली किताब है, और छपते ही चर्चा में आ गई है. 'रिफ़्यूजी कैंप' एक साधारण लड़के अभिमन्यु के नेतृत्व में 5000 लोगों के एक विशाल आत्मघाती दस्ते में तब्दील होने की कहानी है, ताकि वे अपने घर, अपने कश्मीर वापस लौट सकें. यह कहानी घाटी में 'द ट्रुथ' नामक अखबार चलाने वाले उसूलों के पक्के और भारतीय धर्मनिरपेक्ष ताने बाने में विश्वास रखने वाले अभय प्रताप कौल की है, जिसे अपने विचारों और उसूलों के चलते आतंकियों का आक्रोश सहना पड़ा. पिता के साये में एक निश्चिंत ज़िंदगी जी रहे अभिमन्यु ने सोचा भी न था कि ऐसी ज़िंदगी आगे बहुत दिन नहीं बचेगी. अभय प्रताप कौल की ज़िंदगी में हलचल तब मचती है जब बाकी कश्मीरी पंडितों की तरह उन्हें भी सपरिवार रातों रात वादी छोडनी पड़ती है. लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष ढांचे में आस्था रखने वाला ये परिवार फटे पुराने टेंटों से तैयार रिफ़्यूजी कैंप में रहने को विवश हो जाता है. समय का पहिया कुछ इस तरह घूमता है कि दोस्ती, रिश्तेदारी, प्यार सब परीक्षा से गुजरते हैं. इस अवस्था में यकायक एक हलचल तब होती है जब उद्वेलित अभिमन्यु एक स्थानीय पुलिस वाले से उलझ लेता है और उसका ज़मीर उसे पीछे हटने से रोक देता है. इसके बाद जो कुछ होता है वो उस साधारण से बीस साल के लड़के पर कैंप में रह रहे 5000 लोगों का विश्वास पैदा करता है और देखते ही देखते वो साधारण लड़का 5000 लोगों की असाधारण भीड़ से बने आत्मघाती दस्ते का नेता बन जाता है. उस अस्वस्थ्य से माहौल में बने रिफ़्यूजी कैंप में पीड़ा, क्रोध, अपनी ज़मीन से प्यार और अमानवीय परिस्थितियों से निकलने की चाह अपनी वादी अपने घर वापस लौटने का ऐलान करती है. राजनीतिक पार्टियां, सीमा पार आतंकवादी और घाटी के कुछ लोग ये सब देख सुन कर हैरान रह जाते हैं. जान से मारने की धमकी और रिफ़्यूजी कैंप को बेहतर बना देने का आश्वासन दोनों मिलने लगते हैं. आतंकी ये समझ जाते हैं कि अगर ये 5000 लोग लौट आए तो वो उनके आतंक का समापन होगा इसलिए इन्हें रोकने का हरसंभव इंतजाम किया जाता है. इधर अभिमन्यु के नेतृत्व में लोग ये कहते है कि ‘अगर अपने घर लौटने पर मौत मिलेगी तो हमें अपनी ज़मीन पर मरना मंजूर है. हम घर आ रहे, मरने आ रहे हैं.'
कुल मिलाकर यह किताब उन वीभत्स 48 घंटों के घटनाक्रमों का तो ज़िक्र करती ही है कि जिनमें वादी में अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों को मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं, बलात्कार और हिंसा का सामना करना पड़ा. साथ ही यह कश्मीर के उस भौगोलिक और राजनीतिक इतिहास से भी परिचय कराती है कि जिसके 1000 साल के घटनाक्रमों का नतीजा बना 1988 -89 का वो घटनाक्रम कि जिसने करीब 6 लाख लोगों से उनका घर, त्यौहार, परम्पराएँ छीन ली. कोई कश्मीर के उस इतिहास की बात नहीं करता. 1988-89 की बात करने से लोग कतराते हैं. सायास उस इतिहास को मिटाने के प्रयास जारी हैं ताकि कश्मीरियत को दफन किया जा सके , ताकि लोग भूल जाएँ कि कैसे करीब 6 लाख लोग अपने ही घर में रिफ़्यूजी बन गए. आशीष कौल कहते हैं,'रिफ़्यूजी कैंप' किताब का जन्म छह साल की एक बच्ची के इस सवाल है से आया कि 'कश्मीर वाकई इतना सुंदर है, तो हम वहाँ क्यूँ नहीं रहते?' किताब का कवर सुधा वर्मा ने डिज़ाइन किया है जो अपने आप में कहानी के पाँच मूल सिद्धान्त शांति, स्वाभिमान, न्याय, धर्म और इंसानियत को प्रतिबिम्बित करता है. किताब प्रभात प्रकाशन ने छापी है. विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े जाने माने लोगों ने किताब और इसकी मूल भावना का समर्थन किया है. उन लोगों में गायक संगीतकार जोड़ी सुनाली और रूप कुमार राठोड, कुश्तीबाज संग्राम सिंह, लेखक कलाकार राहुल सिंह शामिल हैं. इस किताब की प्रस्तावना रिटायर्ड आर्मी जनरल जे जे सिंह ने लिखी है. पाकिस्तानी गायक हसन जहांगीर कहते हैं 'सीमा के दोनों ओर वे लोग जो अमन चाहते हैं, उन्हें ये किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए.