प्रयागराजः दिलदार मित्र, बेजोड़ लेखक, रिश्तों को जीवंतता से जीने वाले कथाकार उपेंद्रनाथ 'अश्क' की जयंती पर 'अश्क जी का कुनबा' नामक उपन्यास के बारे में उनकी बहू भूमिका अश्क ने जागरण संवाददाता बृजेश श्रीवास्तव से बातचीत की. उन्होंने बताया कि इस उपन्यास में अश्क के उतार-चढ़ाव भरे जीवन, घर-बाहर की चुनौतियों के बीच लेखन, 'नीलाभ प्रकाशन' के संचालन जैसे कई अनछुए पहलुओं को दो खंडों में उजागर किया गया है. इसमें 14 दिसंबर, 1910 को जालंधर में अश्क के जन्म और 19 जनवरी, 1996 को प्रयागराज में मृत्यु तक की गाथा शामिल है. 'अश्क जी का कुनबा' में उनकी तीनों पत्नियां क्रमश: शीला (दो साल का साथ), माया (कुछ माह का साथ) और कौशल्या (आजीवन लगभग 50 साल का साथ) से जुड़ी स्मृतियां हैं. इसी तरह साहित्यकारों से उनके आत्मीय रिश्तों, संवाद व गतिविधियों को भी दर्ज किया गया है. भूमिका बताती हैं कि कौशल्या माता ने अपने रिफ्यूजी फंड से अपने इकलौते पुत्र के नाम से 'नीलाभ-प्रकाशन' खोला. पिताजी (उपेंद्रनाथ) के अलावा मंटो, बेदी, चुगताई, कृशन चंदर, भारती, पंत, निराला, महादेवी, कमलेश्वर, मोहन राकेश जैसे दिग्गजों रचनाकारों की रचनाओं को प्रकाशित प्रकाशित किया.
समालोचक रविनंदन सिंह के अनुसार उपेन्द्रनाथ 'अश्क' ने एक आर्य स्कूल में पांचवी कक्षा में पढ़ते समय ही लाहौर से निकलने वाली पत्रिका 'आर्य भजन पुष्पांजलि' की प्रेरणा से भजन की तुकबंदी करने लगे. आठवीं कक्षा में उर्दू गजल की ओर मुड़े और अपना उपनाम 'अश्क' रख लिया. आजर जालंधरी को उस्ताद बनाकर गजल कहने लगे. हाईस्कूल से उर्दू कहानी की ओर मुड़े और पहली कहानी 'याद है वो दिन' नाम से लिखी. यह कहानी लाहौर के साप्ताहिक समाचार पत्र 'गुरु घंटाल' में छपी. दूसरी कहानी लाहौर की ही पत्रिका 'प्रताप' में छपी. यहीं से अश्क पूरी तरह कथा-लेखन को समर्पित हो गए. मुंशी प्रेमचंद व हरिकृष्ण प्रेमी की प्रेरणा से अश्क 1936 में हिंदी में लिखने लगे. अश्क की पहली हिंदी कहानी खंडवा से माखनलाल चतुर्वेदी के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'कर्मवीर' में छपी. वरिष्ठ कथाकार डॉ कीर्ति कुमार सिंह बताते हैं कि उपेंद्रनाथ अश्क 1948 में पत्नी व तीन वर्ष के बेटे नीलाभ के साथ प्रयागराज आ गए. यहां महादेवी द्वारा रसूलाबाद में स्थापित साहित्यकार संसद में शरण लिया. एक विवाद के कारण तीन महीने बाद ही रसूलाबाद में ही किराए के मकान में रहने लगे.