नई दिल्ली: “भारत में सबसे पहले पंडिता रमाबाई ने ही नारीवाद की अवधारणा को उद्घाटित किया. उन्होंने अपनी किताब ‘द हाई कास्ट हिन्दू वुमन‘ में लिखा कि किस तरह हिन्दू धर्म में एक औरत को औरत बनाए जाने की ट्रेनिंग दी जाती है. रमाबाई ने देश-विदेश में अकेले यात्राएं करते हुए अपने भाषणों के जरिए धन एकत्रित किया और भारत लौटने पर हिन्दू विधवा लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला. यह कोई आसान काम नहीं था. ऐसा कर पाना आज भी किसी के लिए बहुत मुश्किल है.” यह बात इंडिया इंटरनेशनल सेंटर एनेक्सी में राजकमल प्रकाशन समूह की ओर से ‘भारतीय नवजागरण का स्त्री-पक्ष‘ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में लेखिका-आलोचक सुजाता ने कही. यह आयोजन उनकी पुस्तक ‘विकल विद्रोहिणी: पंडिता रमाबाई‘ के सन्दर्भ में आयोजित हुई थी. रंगकर्मी दिलीप गुप्ता ने किताब से अंश पाठ किया. संचालक शोभा अक्षर ने गोष्ठी का विषय रखा और सुजाता द्वारा लिखी गई पंडिता रमाबाई की जीवनी को स्त्रीद्वेष से पीड़ित पितृसत्तात्मक समाज पर एक कड़ा प्रहार बताया. सुजाता ने कहा कि पंडिता रमाबाई की जीवनी लिखने का फैसला मैंने इसलिए लिया, क्योंकि मैं उस वक्त को जीना चाहती थी, जो उन्होंने जिया. उनका जीवन अति नाटकीय, तूफानों और उथल-पुथल से भरा हुआ था. 19वीं सदी, जो कि एक पुरुष प्रधान सदी थी, वह उसमें अपने पांव जमा पाने में सफल रहीं. जिस तरह का वह समाज था, उस समय उनके चरित्र पर कई लांछन लगे होंगे. उनके इसी निर्भीक व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया. लेकिन जब भी समाज सुधारकों की फेहरिस्त बनती है, तो उसमें पंडिता रमाबाई का नाम शामिल नहीं किया जाता है. क्या केवल इसलिए कि वह एक स्त्री थीं? आज के समय में कई राजनीतिक दल और संगठन उनका नाम लेकर फायदा लेना चाहते हैं, लेकिन अगर वो एक बार रमाबाई के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे तो उनके नाम से दूरी बना लेंगे.
अनामिका ने कहा कि पंडिता रमाबाई हमारे समाज को समझाने निकली थी. इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत और बंगाली सीखी ताकि वह लोगों से संवाद कर सके. उनका सबसे बड़ा योगदान यही है कि वह संवाद के लिए प्रस्तुत होती है. उन्होंने कहा कि हर बड़े स्त्रीवादी आंदोलन के आंचल तले हमेशा कोई न कोई बड़ा मुद्दा रहा है. स्त्रियों ने कभी अकेले अपनी मुक्ति के प्रयास नहीं किए. जिस तरह एक स्त्री को शिक्षित करना पूरे परिवार को शिक्षित करना है, उसी तरह स्त्री की मुक्ति ही मानवता की मुक्ति है. वृहत्तर मानवता की सेवा के रमाबाई के प्रयासों में भी हमें यही देखने को मिलता है. सुजाता की किताब बहुत ही व्यवस्थित किताब है. इसमें रमाबाई के बारे में सब कुछ है. इसमें उनकी पब्लिक डिबेट, लोगों से उनके संवाद भी शामिल हैं. यह बहुत ही सहज और सरल ढंग से लिखी गई किताब है. सुधीर चन्द्र ने लेखिका की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए कहा कि उन्नीसवीं सदी भारत में पुनर्जागरण की सदी मानी जाती है. खासतौर पर महाराष्ट्र और बंगाल में इस दौर में समाज सुधारों के जो आन्दोलन चले उन्होंने भारतीय मानस और समाज को गहरे प्रभावित किया. उन्होंने कहा कि मैं लेखक से पूर्ण सहमत हूं कि न केवल महाराष्ट्र बल्कि पूरे देश के नवजागरण को हमने अभी तक समझा ही नहीं है. देश में नवजागरण की चेतना फिर से जगानी चाहिए. यह हम तभी जान सकेंगे जब हमारे समाज में जो महान स्त्री-पुरुष थे, जिन्होंने समाज में नवजागरण की ज्योति जलाई, उन पर गंभीरता से ऐसा कुछ लिखा जाए जो कभी नहीं लिखा गया. इसका बीड़ा खास कर युवा वर्ग को उठाना होगा. गौरतलब है कि सुजाता की किताब हमें बताती है कि किस तरह प्राचीन शास्त्रों की अद्वितीय अध्येता पंडिता रमाबाई उपेक्षाओं और अपमानों से लगभग अप्रभावित रहते हुए औरतों के हक में न केवल बौद्धिक हस्तक्षेप किया अपितु समाज सेवा का वह क्षेत्र चुना जो किसी अकेली स्त्री के लिए उस समय लगभग असंभव माना जाता था. उनके द्वारा विधवा महिलाओं के आश्रम की स्थापना, पुनर्विवाह तथा स्वावलंबन की पहल और यूरोप तथा अमेरिका में जाकर भारतीय महिलाओं के लिए समर्थन जुटाने की पहल की चर्चा बार-बार करना जरूरी है.