नई दिल्ली: देश की सबसे बड़ी अदालत ने भाषा को लेकर एक बेहद मजेदार टिप्पणी की है. उच्चतम न्यायालय में महाराष्ट्र के व्यापारियों और दुकानदारों के एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान जस्टिस नागरत्ना ने पूछा कि आप अपनी दुकानों और प्रतिष्ठानों के बोर्ड अगर हिंदी, अंग्रेजी के साथ मराठी में भी लिखें तो क्या हर्ज है? ये भी तो आठवीं अनुसूची में शामिल भाषा है. नया बोर्ड लगाने में आखिर क्या हर्ज या दिक्कत है? सभी बोर्ड अलग-अलग साइज और रंगों में होना कितना भद्दा दिखेगा आप लोग खुद ही सोचिए. आप देखिए सारे वकील अलग-अलग होते हुए भी स्याह-सफेद लिबास में ही दिखते हैं. अदालत ने यहां तक सलाह दे दी कि आप अपने दुकानों और दफ्तरों पर अनिवार्य रूप से मराठी में लिखे मामूली बोर्ड लगाकर भी काम चला सकते हैं, इसके लिए महंगे और खर्चीले बोर्ड लगाने की जरूरत नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय में जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ ने याचिकाकर्ता ‘फेडरेशन ऑफ रिटेल ट्रेडर्स वेलफेयर एसोसिएशन‘ जो फुटकर दुकानदारों का संगठन है की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह बात कही. सर्वोच्च न्यायालय ने यहां तक कह दिया कि आखिर दुकानदारों को ‘महाराष्ट्र शॉप्स एंड एस्टेब्लिशमेंट रूल्स‘ को चुनौती देने के लिए कोर्ट फीस और वकीलों की फीस भी तो भरनी पड़ती है.
दरअसल, उच्चतम न्यायालय में बॉम्बे हाईकोर्ट के एक आदेश को चुनौती दी गई है. हुआ यों कि महाराष्ट्र सरकार ने राज्य की राजधानी मुंबई में दुकानदारों को हिंदी, अंग्रेजी और मराठी में साइन बोर्ड लगाना अनिवार्य कर दिया. इस सरकारी आदेश में कहा गया था कि मुंबई की दुकानों, प्रतिष्ठानों पर हिंदी, अंग्रेजी के साथ मराठी में बोर्ड होना अनिवार्य है. इनके अलावा अगर कोई किसी अन्य भाषा में भी नाम लिखना चाहे तो कोई रोक नहीं है. इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई, पर दुकानदारों को राहत नहीं मिली. वे उच्चतम न्यायालय आए, जहां उन्हें पीठ से अच्छी-खासी सलाह मिल गई. पीठ ने पूछा कि आपको एक अलग बोर्ड लगाने में दिक्कत क्या है? ये कौन सा गंभीर संवैधानिक मसला है? ये नियम आपके कारोबार करने के अधिकार और आजादी को कैसे प्रभावित कर रहा है? लकड़ी के एक फट्टे को रंग कर भी तो दुकान या प्रतिष्ठान का नाम और अन्य जानकारियां लिखी जा सकती हैं. इसके लिए झगड़ा करना तो बिलकुल उचित नहीं. पीठ ने कहा कि इस नीति का मकसद है मराठी लोगों को समझने में दिक्कत न हो. उन्हें आसानी से समझ में आ जाए. इसलिए दुकानदारों को इस मुद्दे को राज्यवाद या कट्टर राष्ट्रवाद की सोच से जोड़कर तिल का ताड़ नहीं बनाना चाहिए. मुकदमेबाजी पर खर्च करने की बजाय बोर्ड ही लगवा लें. याद रहे कि उच्चतम न्यायालय ने पिछले साल नवंबर में आदेश जारी कर इस नियम का पालन न करने वाले दुकानदारों के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई न करने को कहा था. याचिकाकर्ताओं की वकील मोहिनी प्रिया की दलील थी कि मुंबई कॉस्मोपॉलिटन महानगर है. यहां बहुभाषी लोग रहते और आते हैं, इसलिए ऐसी अनिवार्यता हटाई जाए.