लंदन: भारतीय साहित्य, कला, संस्कृति और लेखकों की धमक अब लंदन तक सुनाई पड़ रही है. देश की ख्यात साहित्यकार प्रभा खेतान द्वारा स्थापित प्रभा खेतान फाउंडेशन ने लंदन में पूरे दिन का एक उत्सव आयोजित किया, जिसका नाम था ‘कलम-ओ-उत्सव‘. भारोपीय हिंदी महोत्सव के दौरान आयोजित इस उत्सव के दौरान पूरे दिन अलग-अलग सत्रों में हिंदी साहित्य से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई. फाउंडेशन के इस प्रयास को आक्सफोर्ड बिजनेस कालेज, ब्रिटिश काउंसिल, वाणी फाउंडेशन जैसी संस्थाओं का सहयोग मिला था. आक्सफोर्ड बिजनेस कालेज परिसर ब्रेंटफोर्ट में संपन्न इस आयोजन की विशेषता यह थी कि भारत में हिंदी साहित्य सृजन से जुड़े कई नामों के साथ ब्रिटेन में रह कर हिंदी साहित्य को समृद्ध कर रहे रचनाकारों की भी सक्रिय भागीदारी रही. कई लोग इस उत्सव की ख्याति और वहां जुटे साहित्यकारों से मिलने लंदन पहुंचे थे. जाहिर है यह आयोजन यह स्थापित करने में सफल रहा कि हिंदी साहित्य अब देश की सीमा से परे किसी दौर में शासक रहे देश को भी प्रभावित कर रहा है और इसके वर्तमान और भविष्य को लेकर गंभीरता से चिंतन करने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. इस आयोजन में शामिल प्रतिनिधियों, दर्शकों और श्रोताओं का कहना था कि ‘कलम-ओ-उत्सव‘ हिंदी के लिए किए जाने वाले सरकारी आयोजनों की तुलना में कहीं सहज, अनौपचारिक और स्वतःस्फूर्त था.
यहां एक विशेष सत्र हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श कितना है? का उत्तर तलाशने से जुड़ा था. इस सत्र में लेखिका प्रत्यक्षा और रेखा सेठी का संवाद हुआ. सत्र की संचालक लेखिका नीलिमा डालमिया आधार थीं. इस सत्र के दौरान बदलते सामाजिक परिवेश में स्त्री-पुरुष के संबंध, परिवार में महिलाओं की स्थिति, स्त्री आकांक्षा, विवाहेतर संबंध, एलजीबीटी और बाइनरी संबंधों के कथा कहानियों में ट्रीटमेंट को लेकर भी खुल कर चर्चा हुई. इसी तरह कथा कहानियों में कितना सच होता है और कितनी कल्पना? इस विषय से जुड़े सत्र में ब्रिटेनवासी हिंदी साहित्यकार शिखा वार्ष्णेय और कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ के साथ आस्था देव ने चर्चा की. कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ का कहना था कि जब तक कथ्य में तथ्य के साथ कल्पना के रंग नहीं होंगे तब तक मुकम्मल तस्वीर नहीं बन पाएगी. यही नहीं जब पाठक आपकी रचना को पढ़े, तो उसमें कुछ ऐसा जरूर होना चाहिए जिसे पाठक अपनी कल्पना शक्ति जोड़ कर रिएक्ट कर सके. उन्होंने यह भी बताया कि उनकी रचना को पढ़ कर कई पाठक फोन पर या फिर लिख कर कहते हैं कि आप की कहानी का अंत सही नहीं था या आपने फलां उपन्यास में उसके नायक, नायिका या फिर अमुक पात्र के साथ न्याय नहीं किया. इसका अर्थ यह है कि पाठक के मर्म को कथ्य ने कहीं छू लिया है और वह भी कथा यात्रा का हिस्सा बन गया है. शिखा वार्ष्णेय के यात्रा वृतांत काफी पसंद किए गए हैं. उनका मानना है कि केवल कथा-कहानी में ही नहीं यात्रा वृतांत में भी कल्पना की जरूरत पड़ती है. आज के पाठक को स्थानों का केवल भौगोलिक विवरण ही नहीं वहां के जीवन से जुड़े रोचक क़िस्से, थोड़ा इतिहास जानने की भी चाह होती है. जिसके लिए घूमने के साथ ही उस स्थान के बारे में पढ़ना और सुनना भी जरूरी होता है उसी के साथ यात्रा वृत्तांत रोचक बन पाता है.