झंझारपुर: विश्व प्रसिद्ध वाचस्पति मिश्रा एवं उनकी प्रतिबद्ध विद्वान अर्धांगिनी भामती के नाम पर दो दिवसीय भामती वाचस्पति राजकीय महोत्सव चिंतन, विचार और कई तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ संपन्न हुआ. उद्घाटन समारोह के पश्चात दोनों दिन विद्वतजनों ने इन महान विभूतियों की जीवन और रचनाकर्म पर आधारित परिचर्चाओं में अपनी बात रखी. बिहार सरकार के कला संस्कृति एवं युवा विभाग द्वारा संचालित महोत्सव का उद्घाटन स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों एसडीएम, एसडीपीओ व अन्य अधिकारियों द्वारा किया गया प्रथम दिन संगीत और सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन हुआ, तो दूसरा दिन साहित्यिक परिचर्चा के नाम रहा. इस दिन मिथिला का पुरातत्व विमर्श विषय पर रत्नेश मिश्रा, अयोध्या नाथ झा, सुशांत भास्कर और प्रोफेसर दिवाकर सिंह ने अपनी बात रखी. दूसरे सत्र का प्रथम सोपान वाचस्पति मिश्र के दार्शनिक कार्यों पर केंद्रित था. सत्र में प्रो लक्ष्मी निवास पांडेय कुलपति कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विवि के नेतृत्व में प्रो देवनारायण झा पूर्व कुलपति कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विवि, प्रो रामचन्द्र झा पूर्व कुलपति कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विवि, विशिष्ट अतिथि प्रो शशिनाथ झा पूर्व कुलपति कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विवि, विशिष्ट वक्ता प्रो धीरज कुमार पांडेय दर्शन विभाग कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विवि और अतिविशिष्ट अतिथि प्रो मार्कण्डेय तिवारी लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विवि नई दिल्ली ने अपने विचार रखे.
याद रहे कि लोक में व्याप्त कथा के अनुसार वाचस्पति मिश्र की शादी छोटी उम्र में ही हो गई थी. जब वह पढ़ाई पूरी करके घर वापस लौटे तो अपनी मां से वेदांत दर्शन पर टीका लिखने की आज्ञा मांगी और कहा कि जब तक टीका पूरी न हो जाए, उनका ध्यान भंग न किया जाए. उनकी मां काफी बूढ़ी थीं, तो उन्होंने मदद के लिए अपनी बहू भामती को बुला लिया. भामती ने सारी जिम्मेदारी उठा ली. कुछ दिन बाद माता जी का देहावसान हो गया. भामती पति की सेवा में लीन रही. वाचस्पति मिश्र साहित्य साधना में ऐसे लीन रहे कि उन्हें पता ही न चला कि उनकी सेवा कौन कर रहा है? धीमे-धीमे 30 साल बीत गए. एक दिन शाम को दीपक का तेल खत्म हो गया और वाचस्पति मिश्र का ग्रंथ भी पूरा हो गया. दीपक के बुझने से भामती को बहुत दुख हुआ. वह काम छोड़कर दीपक में तेल डालने लगी. अभी-अभी अपने रचना कार्य से मुक्त हुए वाचस्पति ने किताबों से सिर उठाया तो पहचान नहीं पाए. उन्होंने पूछा, ”हे देवी, आप कौन हैं? नजरें झुका कर सामने खड़ी भामती ने कहा, ”हे देव, मैं आपकी पत्नी हूं.‘ सुनकर वाचस्पति मिश्र जैसे गहरी नींद से जागे और पूछा, ‘देवी, तुम्हारा नाम क्या है?’ उन्होंने कहा, ‘मेरा नाम भामती है.‘ वाचस्पति मिश्र उसके त्याग और सेवा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तुरंत कलम उठाई और 30 वर्षों तक कठिन मेहनत करके जिस अप्रतिम ग्रंथ की रचना की थी, उसे ‘भामती‘ को समर्पित कर दिया. दुनिया में वाचस्पति के तप की कहानी फैली तो साथ ही भामती के त्याग की कीर्ति भी फैली.