नई दिल्लीः साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित प्रवासी मंच कार्यक्रम में ताशकंद से पधारी विद्वान उल्फ़त मुहीबोवा ने शिरकत की और मध्यकालीन हिंदी साहित्य पर अपना आलेख प्रस्तुत किया. कार्यक्रम के आरंभ में साहित्य अकादेमी के सचिव के श्रीनिवासराव ने उनका स्वागत अंगवस्त्रम एवं साहित्य अकादेमी का प्रकाशन भेंट करके किया. उल्फ़त मुहीबोवा जो कि ताशकंद राजकीय प्राच्य विद्या संस्थान में दक्षिण एशियाई भाषा विभाग में हिंदी की प्रोफे़सर है, ने मध्यकालीन भक्ति साहित्य के बारे में अपने शोध को श्रोताओं से साझा किया. ज्ञात हो कि उल्फ़त मुहीबोवा ने हिंदी भक्ति साहित्य पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है. उन्होंने कहा कि मेरे शोध से उज्बेकिस्तान के पाठकों को यह स्पष्ट हुआ कि संत और भक्त में, निर्गुण और सगुण में क्या अंतर होता है. मेरे शोध से वो यह भी समझ पाए कि मध्यकालीन या भक्ति साहित्य ब्रज, अवधी के अलावा फ़ारसी और तुर्की में रचा गया तथा उसमें जैन कवि भी शामिल थे.
मुहीबोवा ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा कि भक्ति साहित्य के हर शब्द के पीछे एक दर्शन है, जो मुझे अपने देशवासियों को समझाना था. उन्होंने भक्ति साहित्य के लोकप्रिय कवियों आदि कबीर, सूर, तुलसी के अतिरिक्त अपने शोध को दादू दयाल, मलूक दास और रज्जब आदि तक विस्तार दिया है.उनके आलेख-पाठ के बाद उपस्थित श्रोताओं ने उनसे कई प्रश्न पूछे, जिज्ञासा जताई, जो कि सामान्यतः उज्बेक साहित्य और उज्बेक भाषा एवं सोशल मीडिया तथा उसके अनुवाद को लेकर थीं. उन्होंने जवाब दिया कि जब विभिन्न देशों में उज्बेक भाषा पढ़ाई जानी शुरू होगी तभी अनुवाद का कार्य गति पकड़ेगा. अभी अनुवाद की मात्रा बेहद कम है. उज्बेक साहित्य में भक्ति साहित्य की उपस्थिति के बारे में पूछे गए सवाल का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि उनके देश में यह 15वीं शताब्दी में शुरू हुआ. वर्तमान में भक्ति साहित्य की प्रासंगिकता के बारे में पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि भक्ति साहित्य अभी केंद्र में नहीं है, लेकिन यह कभी ख़त्म नहीं होगा, क्योंकि इसमें व्याप्त दर्शन की भावना सभी के बीच एकात्म और सहिष्णुता का संदेश देती है. कार्यक्रम में देवेंद्र चौबे, रश्मि, राजेश पासवान, आशीष पांडेय एवं विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं सहित अनेक पत्रकारों और लेखकों ने भाग लिया.