लखनऊ: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने आचार्य परशुराम चतुर्वेदी स्मृति समारोह का आयोजन किया. इस अवसर पर संस्थान के निराला सभागार में हुई संगोष्ठी में नागपुरकोलकातागांधीनगर से आए वक्ताओं ने संत साहित्य पर अपनी बात रखी. नागपुर से आए वक्ता डाक्टर मनोज कुमार पाण्डेय ने कहा कि भारत संतों की धरती है. संत साहित्य की व्यापकता उसकी सहज मानवता है. संत साहित्य की शुरुआत तनाव व संघर्ष से होती है. संत साहित्य की शुरुआत ग्यारहवींबारहवीं शताब्दी से मानी जाती है. नाथ सम्प्रदायों ने संत साहित्य को आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभायी. संत नामदेव उसे संत मानते हैं जो सभी प्राणियों में परमात्मा को देखता हैजिसकी वाणी सदा भगवान का नाम लेती रहती है. हम कह सकते हैं कि संत साहित्य का मूल स्वर केवल मानव कल्याण ही नहीं बल्कि समस्त प्राणियों का कल्याण है.

इस अवसर पर कोलकाता की डा सोमा बंधोपाध्याय ने कहा कि मनुष्य होने के लिए उसमें मनुष्यता का गुण होना चाहिए. मानवता को जो राह दिखाये वही संत होता है. बांग्ला संत साहित्य का उद्देश्य मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने का कार्य करता है. बंगाल में चैतन्य महाप्रभु का स्थान संतों में प्रमुखता से लिया जाता है. वैष्णव धर्म में राधा-कृष्ण के अलौकिक प्रेम की व्याख्या की गयी है. गुजराती साहित्य में संत परम्परा पर गांधीनगर के डॉ जशभाई पटेल ने कहा कि संत किसी की निंदा नहीं करता है. हैदराबाद की डा सुमनलता रुद्रावझला ने तेलगु साहित्य में संत साहित्य परम्परा पर कहा कि संत वह होता है जो अपने वाणी को अनहद नाद तक ले जाता है. डा अहिल्या मिश्र ने कहा कि मिथिला में ज्ञान संवाद-विवाद की परम्परा बड़ी प्राचीन रही है. ज्ञान व भक्ति की विचार धारा का जन्म मिथिला प्रदेश से होती हुई आगे बढ़ी है. इस मौके पर प्रदीप अली एवं आकांक्षा सिंह ने तुलसीदासकबीरदासरैदासमीरांबाई व नरसी मेहता की कविताओं की संगीतमय प्रस्तुति दी.