जमशेदपुर: “संताली साहित्य में हमारे पूर्वजों के संघर्ष, उनकी मान्यताओं, रीति-रिवाजों और जीवनशैली का अनमोल खजाना छिपा हुआ है. इसे सहेजना और आगे बढ़ाना वर्तमान पीढ़ी की जिम्मेदारी है.” यह बात 37वें इंटरनेशनल संताली राइटर्स कांफ्रेंस एंड लिटरेरी फेस्टिवल के दौरान आल इंडिया संताली राइटर्स एसोसिएशन के महासचिव रबिंद्रनाथ मुर्मू ने कही. उन्होंने कहा कि संताली भाषा और साहित्य हमारी सांस्कृतिक पहचान और विरासत का अभिन्न हिस्सा है. संताली भाषा न केवल हमारे समाज की परंपराओं और लोकाचारों को संरक्षित करती है, बल्कि यह हमारी अस्मिता और इतिहास का जीवंत प्रमाण भी है. मुर्मू ने कहा कि संताली भाषा का प्रचार-प्रसार और साहित्यिक विकास केवल तभी संभव है, जब इसे अपनाने और सशक्त बनाने में समाज के हर वर्ग विशेषकर युवाओं का योगदान हो. साहित्य के माध्यम से संताली भाषा का समृद्ध इतिहास और सांस्कृतिक महत्त्व दुनिया तक पहुंचाया जा सकता है. संताली साहित्य को पढ़ने, लिखने और प्रचारित करने से न केवल हमारी विरासत संरक्षित होगी, बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बनेगी.

इस आयोजन में संताली के बहाने सभी क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के संरक्षण की बात उठी. वक्ताओं ने कहा कि संताली भाषा हमारी जड़ों से जुड़ने का माध्यम है और इसे समृद्ध करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए. याद रहे कि संताली जनजीवन पर सैकड़ों किताबें लिखी गयी हैं. इनमें साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता भोला सोरेन की एनसिएंट सिविलाइजेशन आफ द संताल, डा धनेश्वर माझी की संताली लोक कथा: एक अध्ययन, लिठुर आडांग, रामेश्वर मुर्मू की जाहेर बोंगा, धर्म बोंगा बुरू गमाचार नेमाचार, खेरवाड़ कोवा: बिंती भक्ति, डीडी मुर्मू की हितलाय, बैद्यनाथ सोरेन की दी खेरवाल, राजेंद्र हांसदा की हेटेज, स्टीफन मुर्मू की होड़ बापला पुथी, विनोद कुमार की झारखंड के आदिवासियों का संक्षिप्त इतिहास और आदिवासी संघर्ष गाथा, केवलराम सोरेन की माझी छटका, कुदुम पुथी और संताली: सिंधु सभ्यता की भाषा जैसी कृतियां शामिल हैं. विशेष बात यह कि ये पुस्तकें साहित्य प्रेमियों के लिए हर पुस्तक मेले में आकर्षण का केंद्र बनती हैं.