नई दिल्ली: “संस्कृत भाषा हमारी संस्कृति की संवाहिका रही हैहमारे देश की प्रगति का आधार रही है और यह भाषा हमारी पहचान भी रही है. संस्कृत भाषा में हजारों वर्षों से निरंतर चली आ रही ज्ञान-परंपरा का अजस्र प्रवाह दिखाई देता है.” यह बात राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के पहले दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए कही. इस अवसर पर राष्ट्रपति ने कहा कि संस्कृत हमारी संस्कृति की पहचान और संवाहक रही है. यह हमारे देश की प्रगति का आधार भी रही है. उन्होंने कहा कि संस्कृत भाषा में एक लोकप्रिय कथन है- भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतम् संस्कृतिस्तथा. इसका भावार्थ यह है कि भारत की प्रतिष्ठा के दो आधार हैंदेव-वाणी संस्कृत भाषा और हमारी समृद्ध संस्कृति. उन्होंने कहा कि संस्कृत का व्याकरण इस भाषा को अद्वितीय वैज्ञानिक आधार देता है. यह मानवीय प्रतिभा की अनूठी उपलब्धि है और हमें इस पर गर्व होना चाहिए. संस्कृत का व्याकरण इस भाषा को अतुलनीय वैज्ञानिक आधार देता है. 14 माहेश्वर सूत्रों की आधारशिला पर अष्टाध्यायी के रूप में संस्कृत व्याकरण का सुदृढ़ प्रासाद पाणिनि द्वारा निर्मित किया गया.

राष्ट्रपति ने कहा कि ब्रह्म पुराण में सत्य ही कहा गया है ‘धन्यास्ते भारते वर्षेजायन्ते ये नरोत्तमा:‘ अर्थात वे श्रेष्ठ लोग धन्य हैं जिनका जन्म भारत वर्ष में होता है. इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को राष्ट्र-गौरव का यह भाव प्रसारित भी करना है तथा उसे और मजबूत भी बनाना है. राष्ट्र-गौरव का यह भाव आप सब के कार्यकलापों में भी परिलक्षित होना चाहिए. राष्ट्रपति मुर्मु ने कहा कि संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने नाटक मालविकाग्नि-मित्रम् के आरंभ में जो अंतर्दृष्टि व्यक्त की है वह आप सब के लिए भी सर्वथा उपयोगी है ‘पुराणमित्येव न साधु सर्वम्‘ अर्थात मात्र पुरानी होने के कारण कोई बात या वस्तु उचित और सुंदर नहीं हो जाती है और केवल नई होने के कारण कोई बात या वस्तु गलत या खराब नहीं हो जाती है. उन्होंने कहा कि विवेकशील व्यक्ति अपनी बुद्धि का प्रयोग करके श्रेष्ठ वस्तु को अंगीकार करते हैं. नासमझ लोग दूसरों के कहने पर किसी बात या वस्तु को अपनाते हैं या नकारते हैं. इसलिए आप सब विद्यार्थी-गण इस बात का ध्यान रखें कि हमारी परंपराओं में जो कुछ विज्ञान-सम्मत तथा उपयोगी है उसे स्वीकार करना है और जो कुछ रूढ़िगतअन्यायपूर्ण और अनुपयोगी है उसे अस्वीकार करना है. संस्कृत में हंस के नीर-क्षीर विवेक की सराहना की गई है. यह विवेक सदैव जागृत रखना चाहिए.