फर्रुखाबादः स्थानीय लोहाई रोड स्थित श्री राधा श्याम शक्ति मंदिर में ‘राधेश्याम रामायण’ पर एक आध्यात्मिक व्याख्यान आयोजित हुआ, जिसमें वक्ताओं ने कहा कि श्री राधेश्याम रामायण का रचनाकार बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशक का एक प्रमुख सर्जक है. हिंदी साहित्य में यह युग द्विवेदी युग कहलाता है. लेकिन उस परिवेश में राधेश्याम रामायण को वह प्रसिद्धि नहीं मिल पायी, जिसकी वह हकदार थी. राधेश्याम कथावाचक के महत्त्व को उस कालखंड में तत्कालीन नेपाल नरेश ने समझा और अपने यहां बड़ा सम्मान दिया. वहीं मंच पर रामलीला के रूप में उनकी रामकथा प्रस्तुत की जाने लगी. जब हमारे यहां के विद्वानों का ध्यान इस रामायण की तरफ गया, तो इसके संवादों ने मंच पर अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न किया. गोस्वामी तुलसीदास जी ने संस्कृत की महत्ता के परिवेश में लोकभाषा अवधी को रामकथा से अलंकृत किया और राधेश्याम कथावाचक ने खड़ी बोली में रामकथा को प्रस्तुत करके उसे जनमानस का कंठहार बनाया.
वक्ता शिवओम अंबर ने कहा कि राधेश्याम कथावाचक ने अपनी ‘राधेश्याम रामायण’ में कथाओं के माध्यम से कीर्तन, गीत और नाट्य शैली का समावेश कर समाज में चेतना भरने का काम किया. याद रहे कि पंडित राधेश्याम कथावाचक ने अपने जीवनकाल में 57 पुस्तकें लिखीं एवं 150 से अधिक पुस्तकों का संपादन किया. ‘राधेश्याम रामायण’ के बाद सबसे अधिक ख्याति उनके वीर अभिमन्यु नाटक को मिली. इस नाटक का मंचन देखने कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद से लेकर पंडित मोतीलाल नेहरू और सरोजिनी नायडू तक बरेली आईं थीं. राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत इस नाटक का मंचन जब उस वक्त की मशहूर न्यू अल्फ्रेड कंपनी ने देशभर में किया, तो अंग्रेजी हुकूमत ने इसे बगावत मानकर उनके खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मामला शुरू करा दिया. पंजाब एजुकेशन बोर्ड ने इसे अपने पाठ्यक्रम में भी शामिल किया. भक्त प्रहलाद नाटक में पिता के आदेश का उल्लंघन करने के बहाने उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध सविनय अवज्ञा आंदोलन का सफल संदेश दिया था. व्याख्यान में अरुण प्रकाश तिवारी ददुआ, संतोष पांडेय, अनिल त्रिपाठी, अशोक मिश्रा, बृजकिशोर सिंह किशोर आदि मौजूद रहे.