रांचीः झारखंड आदिवासी महोत्सव के दौरान एक महत्त्वपूर्ण आयोजन ‘राष्ट्रीय आदिवासी साहित्य‘ पर परिचर्चा थी. इसके प्रथम सत्र में विभिन्न राज्यों से आये ख्यातिप्राप्त विशेषज्ञों, साहित्यकारों, कथाकारों ने आदिवासी जीवन को उपन्यास में ढालने की प्रक्रिया, यथार्थ बनाम संवेदना, लोक कथाओं और लोकगीतों का लेखन में उपयोग विषय पर अपने विचार रखे. प्रथम सत्र की शुरुआत तेलंगाना से आये सुरेश जगन्नाथम ने की. उन्होंने आदिवासी समाज के जीवन को समझने में उपन्यास की भूमिका पर प्रकाश डाला और कहा कि उपन्यास के माध्यम से हमें आदिवासियों की संस्कृति एवं जीवनी को समझने में मदद मिलती है. छत्तीसगढ़ की वरिष्ठ साहित्यकार कुसुम माधुरी टोप्पो ने आदिवासी उपन्यास में भाषा की शैली की जानकारी दी. उन्होंने साहित्य में बिंब के स्वरूप की विस्तार से चर्चा की. केन्द्रीय विश्वविद्यालय तेज़पुर के प्रो प्रमोद मेढ़ा ने आदिवासी उपन्यास के सृजन की दुश्वारियों के बारे में विस्तार से बताया और आदिवासी उपन्यास को लिखने की कला एवं शैली के उपयोग के बारे में भी जानकारी दी. उन्होंने आदिवासियों के बारे में शोध करने वाले प्रो एडवर्ड और हिंदी लेखक प्रो सानी के लेखन के माध्यम से आदिवासियों के जीवन का चित्रण प्रस्तुत किया.
पश्चिम बंगाल के कथाकार सुंदर मनोज हेम्ब्रम ने कहा कि उन्होंने संथाली भाषा में कई रचनाएं लिखीं हैं. उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से आदिवासी समाज की जीवनी को प्रस्तुत किया और कहा कि कहानियों में घटनाओं का समायोजन होता है, जबकि कथा रोचक होती हैं. एसएस मेमोरियल कॉलेज की प्राध्यापक प्रो सावित्री बड़ाईक ने पहाड़गाथा एवं मताई उपन्यास के माध्यम से आदिवासी समाज की जीवनी एवं संस्कृति को समझाने का प्रयास किया. नागालैंड विश्वविद्यालय के श्री थूनबुइ ने जनजातियों के साहित्य की चर्चा की. दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो स्नेहलता नेगी ने किन्नौर प्रजाति की जानकारी दी और कहा कि आदिवासियों के जीवन जीने का तरीक़ा एवं उनकी संस्कृति लोकगीतों में देखने को मिलती है. त्रिपुरा विश्वविद्यालय की प्रो मिलान रानी जमातीया ने हाचुक खुरिको उपन्यास के माध्यम से आदिवासी के जीवन एवं संस्कृति को समझाया. इस अवसर पर सेवानिवृत्त प्राध्यापक, छत्तीसगढ़ डा कोमल सेन सरवा और वरिष्ठ कथाकार छत्तीसगढ़ लोक बाबू ने भी अपने विचार रखे.