नई दिल्ली: “भाषा केवल संवाद का माध्यम भर नहीं होती बल्कि हमारी भाषा हमारी संस्कृति की संवाहक होती है. ये बात सही है कि भाषाएं समाज में जन्म लेती हैं, लेकिन भाषा समाज के निर्माण में उतनी ही अहम भूमिका निभाती है.” प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजधानी में अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में बोलते हुए कई बड़ी बातें कही, जो भारतीय भाषाओं को लेकर उनकी सरकार के दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है. प्रधानमंत्री ने कहा कि यह सम्मेलन एक भाषा या राज्य तक सीमित आयोजन नहीं है, मराठी साहित्य के इस सम्मेलन में आजादी की लड़ाई की महक है, इसमें महाराष्ट्र और राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत है. प्रधानमंत्री ने कहा कि 1878 में पहले आयोजन से लेकर अब तक अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन देश की 147 वर्षों की यात्रा का साक्षी रहा है. महादेव गोविंद रानाडे, हरि नारायण आप्टे, माधव श्रीहरि अणे, शिवराम परांजपे, वीर सावरकर, देश की कितनी ही महान विभूतियों ने इसकी अध्यक्षता की है. प्रधानमंत्री ने कहा कि मैं जब मराठी के बारे में सोचता हूं, तो मुझे संत ज्ञानेश्वर का वचन याद आता है. ‘माझा मराठीची बोलू कौतुके. परि अमृतातेहि पैजासी जिंके. यानी मराठी भाषा अमृत से भी बढ़कर मीठी है. प्रधानमंत्री ने कहा कि ये मराठी सम्मेलन एक ऐसे समय हो रहा है, जब छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के 350 वर्ष पूरे हुए हैं. जब पूण्यस्लोक अहिल्याबाई होल्कर की जन्मजयंती के 300 वर्ष हुए हैं और कुछ ही समय पहले बाबा साहेब अंबेडकर के प्रयासों से बने हमारे संविधान ने भी अपने 75 वर्ष पूरे किए हैं. प्रधानमंत्री ने कहा कि आज हम इस बात पर भी गर्व करेंगे कि महाराष्ट्र की धरती पर मराठी भाषी एक महापुरूष ने 100 वर्ष पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का बीज बोया था. आज ये एक वटवृक्ष के रूप में अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है. वेद से विवेकानंद तक भारत की महान और पारंपरिक सांस्कृति को नई पीढ़ी तक पहुंचाने का एक संस्कार यज्ञ, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पिछले 100 वर्षों से चला रहा है. संघ के ही कारण मुझे मराठी भाषा और मराठी परंपरा से जुड़ने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ. इसी कालखंड में कुछ महीने पहले मराठी भाषा को अभिजात भाषा का दर्जा दिया गया है. देश और दुनिया में 12 करोड़ से ज्यादा मराठी भाषी लोग हैं. मराठी को अभिजात भाषा का दर्जा मिले, इसका करोड़ों मराठी भाषियों को दशकों से इंतजार था.
प्रधानमंत्री ने कहा कि हमारी मराठी ने महाराष्ट्र और राष्ट्र के कितने ही मनुष्यों के विचारों को अभिव्यक्ति देकर हमारा सांस्कृतिक निर्माण किया है. इसीलिए, समर्थ रामदास जी कहते थे- मराठा तितुका मेळवावा महाराष्ट्र धर्म वाढवावा आहे तितके जतन करावे पुढे आणिक मेळवावे महाराष्ट्र राज्य करावे जिकडे तिकडे मराठी एक सम्पूर्ण भाषा है. इसीलिए, मराठी में शूरता भी है, वीरता भी है. मराठी में सौंदर्य भी है, संवेदना भी है, समानता भी है, समरसता भी है, इसमें आध्यात्म के स्वर भी हैं, और आधुनिकता की लहर भी है. मराठी में भक्ति भी है, शक्ति भी है, और युक्ति भी है. आप देखिए, जब भारत को आध्यात्मिक ऊर्जा की जरूरत हुई, तो महाराष्ट्र के महान संतों ने ऋषियों के ज्ञान को मराठी भाषा में सुलभ कराया. संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, संत रामदास, संत नामदेव, संत तुकड़ोज़ी महाराज, गाडगे बाबा, गोरा कुम्हार और बहीणाबाई महाराष्ट्र के कितने ही संतों ने भक्ति आंदोलन के जरिए मराठी भाषा में समाज को नई दिशा दिखाई. आधुनिक समय में भी गजानन दिगंबर माडगूलकर और सुधीर फड़के की गीतरामायण ने जो प्रभाव डाला, वो हम सब जानते हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि गुलामी के सैकड़ों वर्षों के लंबे कालखंड में, मराठी भाषा, आंक्रांताओं से मुक्ति का भी जयघोष बनी. छत्रपति शिवाजी महाराज, संभाजी महाराज और बाजीराव पेशवा जैसे मराठा वीरों ने दुश्मनों को नाको चने चबवा दिए, उनको मजबूर कर दिया. आजादी की लड़ाई में वासुदेव बलवंत फड़के, लोकमान्य तिलक और वीर सावरकर जैसे सेनानियों ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी. उनके इस योगदान में मराठी भाषा और मराठी साहित्य का बहुत बड़ा योगदान था. केसरी और मराठा जैसे समाचार पत्र, कवि गोविंदाग्रज की ओजस्वी कवितायें, राम गणेश गडकरी के नाटक मराठी साहित्य से राष्ट्रप्रेम की जो धारा निकली, उसने पूरे देश में आजादी के आंदोलन को सींचने का काम किया. लोकमान्य तिलक ने गीता रहस्य भी मराठी में ही लिखी थी. लेकिन, उनकी इस मराठी रचना ने पूरे देश में एक नई ऊर्जा भर दी थी. प्रधानमंत्री ने कहा कि मराठी भाषा और मराठी साहित्य ने समाज के शोषित, वंचित वर्ग के लिए सामाजिक मुक्ति के द्वार खोलने का भी अद्भुत काम किया है. ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, महर्षि कर्वे, बाबा साहेब आंबेडकर, ऐसे कितने ही महान समाज सुधारकों ने मराठी भाषा में नए युग की सोच को सींचने का काम किया था. प्रधानमंत्री ने कहा कि कई बार जब भाषा के नाम पर भेद डालने की कोशिश की जाती है, तो हमारी भाषाओं की साझी विरासत ही उसका सही जवाब देती है.