जयपुर: स्थानीय जवाहर कला केंद्र ने राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के साथ मिल कर पूरा एक दिन मुंशी प्रेमचंद के नाम कर दिया. ‘कला संसार‘ के अंतर्गत मुंशी प्रेमचंद जयंती समारोह के विभिन्न सत्रों में प्रेमचंद के साहित्यिक योगदान पर चर्चा, कहानी पाठ और समीक्षा हुई. कार्यक्रम में उपस्थित साहित्यकारों और प्रबुद्धजनों ने वरिष्ठ साहित्यकार और सेवानिवृत आईएएस देवीराम जोधावत को भावभीनी श्रद्धांजलि भी दी. ऋतिक शर्मा के निर्देशन में इप्टा जयपुर की नाट्य प्रस्तुति में प्रेमचंद की कहानी के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था को आईना दिखाया गया. केंद्र के अतिरिक्त कार्यवाहक महानिदेशक प्रियव्रत सिंह चारण और वरिष्ठ साहित्यकार फारूक आफरीदी ने ‘प्रेमचंद की विरासत के मायने‘ विषय पर संवाद किया. गोविन्द माथुर की अध्यक्षता और रजनी मोरवाल के संयोजन में हुए सत्र में मनीषा कुलश्रेष्ठ, राजाराम भादू और विशाल विक्रम सिंह ने ‘प्रेमचंद का साहित्यिक योगदान और उनकी प्रासंगिकता‘ पर प्रकाश डाला.
राजाराम भादू ने कहा कि प्रेमचंद की रचनाएं आज भी मशाल बनकर साहित्यकारों और समाज का मार्ग प्रशस्त कर रही है. उन्होंने कहा कि प्रेमचंद की विरासत को समग्रता में देखने की जरुरत है, वे हिंदी के पहले ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने यथार्थवाद और गांवों को अपनी रचनाओं में स्थापित किया. उनकी रचनाओं में समाज में अंतिम छोर के व्यक्ति को बतौर नायक दिखाया गया इतना ही नहीं रचनाशीलता में वैचारिक प्रतिबद्धता को भी उन्होंने जगह दी. विशाल विक्रम सिंह ने कहा कि विरासत के मायने सबके लिए अलग-अलग हो सकते हैं. गांधी ने जिन गांवों की बात कि उनका वास्तविक ताना-बाना प्रेमचंद ने पेश किया, वे प्रामाणिक सामाजिक इतिहासकार थे. ”जब ईश्वर प्रदत्त चीजों का व्यवहार निषेध कर दिया जाए‘ नमक का दारोगा की शुरुआती पंक्तियां पढ़ते हुए उन्होंने कहा कि आज जिस तरह प्राकृतिक संसाधनों का सौदा किया जा रहा है यह बात सौ साल पहले प्रेमचंद ने अभिव्यक्त की थी. इसी से उनकी दूरदर्शिता और प्रासंगिकता का अंदाजा लगाया जा सकता है. मनीषा कुलश्रेष्ठ ने कहा कि प्रेमचंद पर उठती अंगुलियों को देखकर हैरत होती है. पात्रों को गढ़ने में उन्होंने पूरी मनोवैज्ञानिक समझ का उपयोग किया. उनकी रचनाएं व्यक्ति को समाज और समाज को राष्ट्र से जोड़ती है. डा दुर्गा प्रसाद अग्रवाल, कृष्ण कल्पित ने भी अपने विचार रखे. ‘कहानी के नए स्वर‘ सत्र में कविता मुखर, उमा, उषा दशोरा, उजला लोहिया ने अपनी कहानियां पढ़ी.