नई दिल्ली: साहित्य अकादेमी ने अपने प्रतिष्ठित कार्यक्रम ‘एक शाम आलोचक के नाम’ में उर्दू-हिंदी के प्रख्यात आलोचक जानकी प्रसाद शर्मा को आमंत्रित किया. उन्होंने ‘उर्दू और हिंदी के रचनात्मक संबंध’ विषय पर अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि उर्दू- हिंदी के रिश्ते बहुत पुराने हैं और यह सवाल ही बेबुनियाद है कि उन दोनों के रचनात्मक रिश्तों की तुलना बार-बार की जाए और उर्दू को हर बार यह साबित करना पड़े कि वह कहीं और की नहीं इसी सरज़मीं की भाषा है. उन्होंने कहा कि कुछ समय पहले तक हिंदी और उर्दू लेखन का नज़रिया बड़ा समावेशी था इसलिए यह सवाल ही नहीं उठता था. यह सवाल हाल ही की उपज है और इसकी कोई बुनियाद नहीं है. शर्मा ने अली सरदार जाफ़री की 1950 में लिखी हुई एक नज़्म और शमशेर की एक कविता ‘अमन का राग’ का उल्लेख करते हुए कहा कि उस समय दोनों के लेखक एक दूसरे की भाषाओं का सम्मान करते हुए लेखन कर रहे थे. उन्होंने कहा कि इस प्रतिद्वंद्विता या इस सवाल का कारण यह भी है कि हम इन दोनों भाषाओं के लेखकों के काम के बारे में अच्छी तरह से नहीं जानते हैं.

शर्मा ने हिंदी में प्रेमचंद, शमशेर, त्रिलोचन, हरिवंश राय बच्चन आदि का उदाहरण देते हुए कहा कि ये लोग तो हिंदी और उर्दू दोनों में सिद्धहस्त थे. उन्होंने इस बात को भी स्पष्ट किया कि उर्दू ,फारसी से निकली कोई विदेशी भाषा नहीं है. उर्दू ने 75 प्रतिशत शब्द संस्कृत, हिंदी और प्राकृत से लिए हैं. उन्होंने कहा कि हम सब यह जानते हैं कि अगर दोहे हिंदी से उर्दू में गए हैं तो गजल उर्दू से हिंदी में आई है. तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ से उदाहरण देकर उन्होंने स्पष्ट किया कि वहां पर भी उर्दू सम्मान के साथ अवधी भाषा में पिरोई गई है. आधुनिक कवियों में उन्होंने मंगलेश डबराल और केदारनाथ सिंह की कविताओं के उदाहरण से बताया कि वे किस तरह मीर और ग़ालिब की भाषा को सम्मान देते हैं. उन्होंने इस आरोप को भी निराधार बताया जिसमें उर्दू में लोक अदब या सामाजिक या सांस्कृतिक लोकाचार की कमी बताई जाती है. उन्होंने कहा कि उर्दू का कोई अलग लोकाचार नहीं है, हिंदी-उर्दू का लोकाचार मिला-जुला ही है. उन्होंने कहा कि मैं हिंदी और उर्दू की एकता का हामी हूं लेकिन मैं यह नहीं चाहूंगा कि उर्दू की लिपि के वजूद को ख़त्म करके इस एकता को बनाए रखा जाए. कार्यक्रम में हिंदी और उर्दू के कई महत्त्वपूर्ण लोग, उर्दू परामर्श मंडल के संयोजक चंद्रभान ख़याल, हिंदी लेखक महेश दर्पण, हरियश राय आदि शामिल थे.