लखनऊ: संगीत जब शास्त्रीय रागों की सीढ़ियों से उतरकर लोकसंगीत का सरोवर बन जाए. जब धुनों की रेशमी डोर पकड़कर मन का मयूर मगन होकर खेतों में नाचने लगे. जब धुन रागदारी के जटिल घाटों को पारकर गंगा की तरह तरल और सरल हो जाए. जब संगीत संस्कृति, पर्व और परंपरा का उत्सव मनाने लगे, तो समझिए कि अपने लखनऊ के नौशाद साहब यहीं कहीं हैं. दैनिक जागरण की ओर से भारतेंदु नाट्य अकादमी में संवादी की यह शाम महान संगीतकार नौशाद की अमर धुनों से सजी. एक-एक कर 1944 में रिलीज फिल्म पहले आप फिर शाहजहां, अनमोल घड़ी, मेला, सन आफ इंडिया अंदाज जैसी फिल्मों की नाजुक धुनों से अवध की यह शाम संगीतमय हो गई. नौशाद की महफिल में उनकी संगीत यात्रा से श्रोताओं को रूबरू कराने के लिए साहित्यकार यतीन्द्र मिश्र के साथ मंच पर उद्घोषक युनूस खान व फिल्म मोहब्बते में गीत गा चुके उद्भव ओझा थे. युनूस ने बताया कि कैसे नौशाद अली ने मोहम्मद रफी की आवाज की रेंज का भरपूर इस्तेमाल कर उन्हें बैजू बावरा बना दिया. यतीन्द्र मिश्र ने कहा कि नौशाद साहब ने फिल्मों में हैवी आर्केस्ट्रा का चलन शुरू किया. हारमोनियम, क्लैरेनेट, वायलिन, सारंगी, तार-शहनाई और पियानो को बड़ी संजीदगी से बजवाया. सर्द शाम में लगभग दो घंटे के आकर्षण से भरे सत्र में श्रोताओं ने नौशाद के संगीत में शास्त्रीय, लोक संगीत, जैज की छाया, उत्सवों के रंग को उनके गीतों के माध्यम से जीया.

इस संवाद की शुरुआत हुई 40 के दशक के संगीत के माहौल से, जब संगीत पर घरानेदार गायकी छाप थी. फिल्मों में नायक ही गायक था. कुंदनलाल सहगल पार्श्वगायन के महर्षि थे. कहा जाता है कि लखनऊ में उस्ताद बब्बन साहब से लेकर मैरिस कालेज आफ हिंदुस्तानी म्यूजिक (आज का भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय, लखनऊ) के प्रोफेसर युसूफ अली खां से शास्त्रीय संगीत की बारीकियां सीखकर नौशाद अली मुंबई पहुंच गए थे. 1946 में नौशाद ने शाहजहां फिल्म में जब दिल ही टूट गया गाना रचा, जिसे मुकेश ने हूबहू सहगल के अंदाज में गाया. नौशाद ने अनमोल घड़ी में ‘तेरा खिलौना टूटा बालक’ मोहम्मद रफी से गवाया. फिल्म मेला में ये ‘जिंदगी के मेले’ गवाया. असल में नौशाद रफी में ऐसी आवाज तलाश रहे थे, जो मंद से तार सप्तक तक एक जैसी रहती है. संगीत के पंडित कहते हैं कि 1949 में फिल्म दुलारी का गीत ‘सुहानी रात ढल चुकी’ अपने वक्त से आगे की धुन थी, जो अब तक बड़े चाव से गाई जाती है. फिर 1952 में रिलीज हुई फिल्म बैजू बावरा ने पार्श्व संगीत की दुनिया बदल दी. वक्ताओं ने बताया कि कैसे नौशाद अली ने राग देशी की शुद्धता को पूरी तरह कायम रखने के लिए शास्त्रीय संगीत के विद्वान उस्ताद आमिर खान और पंडित डीवी पलुस्कर से आज ‘गावत मन मेरा झूमके’ दिव्य गायन कराया है. उद्घोषक युनुस खान ने कहा कि नौशाद ने फिल्म बैजू बावरा में राग दरबारी पर आधारित ओ दुनिया के रखवाले, मालकंस पर आधारित मन तड़पत हरि दर्शन को आज, राग पीलू पर आधारित झूले में पवन की आई बहार…जैसे गाने कालजयी बन गए.

यतीन्द्र मिश्र ने बताया कि शबाब फिल्म में ‘मन की बीन मतवारी बाजे’ सुनें या फिल्म मुगल ए आजम में बड़े गुलाम अली की राग सोहनी पर आधारित ठुमरी ‘प्रेम जोगन बनके’ राग पूरी तरह साकार हो उठा है. उन्होंने कहा नौशाद ने दरबारी और रोशन ने राग यमन का बहुतायत और बड़ी कारीगरी से प्रयोग किया. एसडी बर्मन भी शास्त्रीय शुद्धता के पैरोकार थे, जबकि अन्य संगीतकारों ने मिश्रित रागों से रस निकाला. यतीन्द्र मिश्र ने नौशाद को संगीत में पंजाबी और बंगाली महक के बीच अवधी खूशबू को स्थापित करने का श्रेय दिया. संवाद की महफिल में नौशाद की धुनों की खुमारी छाई हुई थी. मुगल ए आजम फिल्म की चर्चा के दौरान लताजी का गाया ‘बेकस पर करम कीजिए’ और मोहम्मद रफी द्वारा ऊंचे सुरों में गाया गया जोशीला गीत ‘जिंदाबाद जिंदाबाद ए मोहब्बत जिंदाबाद’ की भी बात उठी. वक्ताओं ने कहा कि नौशाद होली, दिवाली और विवाह जैसे उत्सवों में रचते बसते हैं तो भगवान शिव को समर्पित राग मालकंस में भी डूबकर रचनाएं करते हैं. उन्होंने अवध की कजरी, दादरा, ठुमरी और चैती के बीच से कई ऐसी धुनें निकालकर दुनियाभर में पहुंचाया जो अवध के कोठों और छोटी महफिलों में कैद थीं. संवाद का सुरमयी संसार बढ़ा होता रहा. संगीत की इंद्रधनुषी तस्वीर में नई रचनाओं के मोती जड़ते गए. शंकर जयकिशन की याद ताजा करती धुन ‘मेरा प्यार भी तू है ये बहार भी तू है’ गाकर संवाद और संगीत की इस यात्रा को नए मुकाम पर पहुंचाया. ‘फिर तेरी कहानी याद आई, फिर तेरा फसाना याद आया’ से पहले दिन के सत्र का समापन हुआ. सभागार से लौटते संगीतप्रेमी-साहित्य साधकों के अधर पर बार-बार फिरते इसी गीत के बोल महान संगीतकार को सच्ची श्रद्धांजलि थी.