बात दशक से भी अधिक पुरानी है. मेरी प्रथम काव्य कृति का प्रकाशन होने वाला था. बस एक ही सपना था कि मेरी पुस्तक की भूमिका डॉ शिवमंगल सिंह लिखें. बचपन में डॉ शिवमंगल सिंह को खूब पढ़ा भी और उनकी रचनाओं को स्कूल में गीत रूप में गाया भी. तब तक इस महान व्यक्तित्व व मूर्धन्य साहित्यकार से मेरा न तो मेरा कोई प्रत्यक्ष परिचय था न ही उन तक पहुंचने का कोई माध्यम. मैंने अपनी बात मेरे आदर्श आदरणीय श्रीधर बर्वे जी से कही और अपनी विवशता भी बतायी कि मैं बिना पूर्व परिचय के कैसे मिलूंतब उनका उत्तर था- “सुमनजी का निवास साहित्य का तीर्थ स्थल ही है और वहां जाने के लिये किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए.” बस! फिर क्या था मैं रोडवेज की एक बस में सवार होकर चल दिया महाकाल की नगरी में निवासरत एक युग कवि के दर्शन के लिए. वर्ष 2002 के जून का वह दिन मेरे लिए अविस्मरणीय है. उस दिन का एक-एक पल मेरे मानस पटल पर अंकित है. मैं लगभग बजे उनके निवास पर पहुंचा. उनके चरण स्पर्श किये और अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए बड़े ही संकोच के साथ उनको अपने आने का प्रयोजन बताया. उन्होंने बड़ी आत्मीयता के साथ बातचीत प्रारंभ की. कुछ ही देर में ये आभास होने लगा कि मानो वे बरसों से मुझसे परिचित है. ऐसा लगा कि बातों-बातों में ही लगभग घंटे में उन्होंने मेरे बारे में सब कुछ ही जान लिया. क्या सृजन! क्या मेरी मंचीय कविता. इस छोटी सी मुलाकात में ही उन्होंने मेरी एक सरस्वती वंदना भी सुनी. मेरे लिए वह अद्भुत दिन व क्षण थे जब वे मेरे द्वारा रचित सरस्वती वंदना को बड़े ही आत्मीय भाव से सुन रहे थे. इस दौरान उन्होंने आजादी के आंदोलनों व देश के तत्कालीन हालात की भी चर्चा की.

उन्होंने मुझसे मेरी पांडुलिपि ली उसे एक दृष्टि में देखा और कहा तुम बैठो मैं इसकी भूमिका अभी ही लिख देता हूं. मेरे लिये ये यह सुखद आश्चर्य था क्योंकि मेरा पूर्वानुमान यह था कि सुमनजी भूमिका लिखने के लिये कुछ दिन अवश्य लेंगे. लगभग घंटे में वे लगभग पृष्ठों की भूमिका के साथ वापस मुझसे रूबरू हुए. यह बात किसी भी साहित्यकार के लिए आश्चर्य का विषय हो सकती है इस मूर्धन्य साहित्यकार ने मात्र घंटे में पुस्तक पढ़ भी लीउसका विश्लेषण भी कर दिया और उसकी भूमिका भी लिख दी. ये बात तभी संभव है जब किसी कला मर्मज्ञ को मां वाणी का इष्ट हो. उनकी हस्तलिखित भूमिका को पाकर मैं अभिभूत था. ऐसा लगा मानो उनके कर कमलों से मुझे साहित्य जगत का सर्वोच्च अलंकरण प्राप्त हो गया है. उनका आभार व्यक्त किया उनके चरण स्पर्श किये और उनसे विदा ली. संभवतः उनके द्वारा लिखा गया यह अंतिम दस्तावेज है जो एक अमूल्य धरोहर के रूप में मेरे पास सुरक्षित है. बस एक कसक बाकी रह गयी दिल में. जब पुस्तक का प्रकाशन हुआ तब मैं उन्हें उनके निवास पर जाकर पुस्तक भेंट करना चाहता था मगर 27 नवंबर 2002 को इस महान साहित्यकार ने दुनिया को अलविदा कह दिया. उनका हर शब्दसान्निध्य और आशीष मेरे जीवन की अमूल्य धरोहर है.
यह संस्मरण मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी से सम्मानित कवि यशवंत चौहान ने लिखे हैं)