नई दिल्ली: ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर‘ में परिचर्चा की यह शाम बिहार के पूर्व मुख्य सचिव त्रिपुरारि शरण के उपन्यास ‘माधोपुर का घर‘ के नाम रही. इस चर्चा में लेखक त्रिपुरारि शरण के अलावा साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत अनामिका, उपन्यासकार वंदना राग और प्रवीण कुमार ने हिस्सा लिया. इस दौरान लेखक ने पाठकों के सवालों के उत्तर भी दिए. 1985 बैच के आईएएस रहे शरण ने बताया कि ‘माधोपुर का घर‘ लिखने में उन्हें करीब दो साल लगे. यह उपन्यास सामाजिक और राजनीतिक इतिहास को मिलकर रोचक तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास है. इस उपन्यास में बाबा और दादी जैसे कई पात्र हैं, लेकिन मुख्य पात्र की बात करें तो वह लोरा नामक एक डॉग है. वह अपने तरीके से कहानी कहती है. उसकी कहानी में क्या गुण और अवगुण हैं, यहां उपन्यास पढ़ने के बाद ही समझा जा सकता है. इस उपन्यास का उद्देश्य है कि मैंने अपने जीवन में जो देखा है, महसूस किया है, उसे अपनी व्याख्या, विश्लेषण और परिप्रेक्ष्य के साथ पाठकों तक पहुंचा पाऊं. उन्होंने दावा किया कि यह नई विधा में लिखा गया उपन्यास है, जिसे काफी रोचक तरीके से लिखा गया है. अब यह पाठकों को तय करना है कि पढ़ने के बाद यह उपन्यास उनके दिल की गहराइयों में उतर पाता है अथवा नहीं. उन्होंने यह भी कहा कि इसमें माधोपुर और घर को रूपक के तौर पर इस्तेमाल किया गया है. अनामिका ने कहा कि इस उपन्यास की कहानी के पात्र बाबा का अपने प्रदेश के वंचित समाज से जो खट्टा-मीठा रिश्ता होता है, खासकर मुसलमानों अथवा निचले तबके से जुड़ी जातियों के लोगों के साथ, उसके बारे में बताया गया है. जिस सौहार्द का विकास वह घर में पत्नी और बच्चों के साथ नहीं कर पाते हैं, वो बाहर दिखा देते हैं.
अनामिका ने कहा कि जमींदारी व्यवस्था और किसानों पर हुए अन्याय की कहानियों पर पहले भी काफी लिखा जा चुका है, लेकिन इस विषय का जो अनदेखा पक्ष है, यह उपन्यास उसे बताने का प्रयास करता है. उपन्यास के पात्र बाबा तमाम तरह के उपक्रम करते हैं. वह कभी गन्ना लगवाते हैं तो कभी डेयरी चलाते हैं. उनके ये उपक्रम फेल होते रहते हैं. उसका प्रभाव उनके घरेलू रिश्तों पर भी पड़ता है. वह चुप होते जाते हैं. वह पड़ोस के लोगों को प्यार करते हैं, डॉगी को प्यार करते हैं, लेकिन घर में तनातनी का माहौल रहता है. ऐसे में इस उपन्यास में उनकी जिंदगी की जद्दोजहद और जीवन में सफलता व असफलता को काफी प्रभावी ढंग से इस उपन्यास में वर्णित किया गया है. वंदना राग ने कहा कि यह उपन्यास एक रूपक है. यह सिर्फ एक लेखक की कहानी नहीं है. यह टूटते हुए समाज और बाद में पुनर्जीवित होते हुए समाज की कहानी है. परिवार की कहानी उतनी ही है, जितनी इस देश की कहानी. लेखक ने इस उपन्यास में 1870 के पुराने दौर से 21वीं सदी तक को बखूबी शब्दों में पिरोया है. संचालक प्रवीण कुमार ने कहा कि ये विस्थापन की कथा है. यह तीन पीढ़ियों के माध्यम से सभ्यता के विमर्श की कहानी है. इस उपन्यास में बहुत ही सजीव तरीके से बताया गया है कि किस तरह पहले हम प्रकृति से दूर होते हैं, फिर परिवार से और फिर निजता के नाम पर एकांत आता है और एकांत के साथ-साथ खालीपन. ये खालीपन की छटपटाहट है, बेचैनी है, जिसे इस उपन्यास के पात्रों के माध्यम से काफी बखूबी तरीके से लेखक ने बताया है.