नई दिल्ली: “साहित्य और कानून का आपस में गहरा संबंध है. साहित्य का सामाजिक न्याय के साथ सुखद गरिमापूर्ण और प्रभावशाली संबंध है. जिस तरह साहित्य के कई खंड होते है उसी तरह सामाजिक न्याय की अवधारणा में भी कई पहलू शामिल होते हैं जैसे समानता, सहानुभूति, आपसी सम्मान, समावेशिता, मानवतावाद और मानवाधिकारों का मूल्य आदि.” भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने ‘साहित्य और सामाजिक न्याय’ विषयक संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए यह बात कही. न्यायमूर्ति मिश्रा ने रोस्को पाउंड को उद्धृत करते हुए कहा कि मैं उनकी इस बात से सहमत हूं कि कानून को स्थिर होना चाहिए, लेकिन स्थिर नहीं रहना चाहिए. ठीक उसी तरह साहित्य को किसी भी तरह के कालक्रम में नहीं बांधा जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि समाज में न्याय की स्थापना केवल न्यायालयों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि साहित्य के माध्यम से भी समाज के हर वर्ग की आवाज को प्रमुखता से प्रस्तुत करना आवश्यक है. न्याय की परिभाषा तभी सार्थक होगी जब समाज के अंतिम व्यक्ति को भी उसका अधिकार मिलेगा और साहित्य इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. इस परिचर्चा में एपी माहेश्वरी, मुकुल कुमार एवं अश्विनी कुमार ने भाग लिया. ‘भारतीय साहित्यिक परंपराएं: विरासत और विकास’ शीर्षक से राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन वक्तव्य प्रख्यात बांग्ला विद्वान एवं अनुवादक सुकांत चौधरी ने दिया तथा बीज वक्तव्य प्रख्यात अंग्रेजी लेखक मकरंद परांपजे ने दिया. आरंभ में अकादेमी के सचिव डा के श्रीनिवास राव ने अपने स्वागत भाषण में भारतीय साहित्य के विकास को प्राचीन साहित्य की विविधताओं से लेकर 20वीं सदी में दलित और महिलाओं के लेखन के उदय और नए रूपों में आधुनिक विस्तार तक और अनुवाद के प्रभाव को रेखांकित किया, जिसने स्थानीय भाषाओं से कृतियों को नए पाठकों तक पहुंचाया. मकरंद परांजपे ने अपने बीज भाषण में भारतीय पुनर्जागरण की अवधारणा पर बात की. उन्होंने आधुनिक भारत में साहित्यिक संस्कृति के समृद्धि के लिए कई खतरों को रेखांकित किया और यह कहा कि अतीत के महिमामंडन से आगे बढ़कर नए सृजन और विकास की ओर बढ़ने की आवश्यकता है, ताकि वर्तमान समय में साहित्य को विभिन्न चुनौतियों का सामना किया जा सके.
अकादेमी के अध्यक्ष माधव कौशिक ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि भारतीय साहित्य सहानुभूति और मानवता पर आधारित है. उन्होंने भारत में मौखिक परंपराओं के निरंतर प्रभाव को स्वीकार किया और साक्षरता से परे साहित्य के महत्त्व को रेखांकित किया. उन्होंने निष्कर्ष में कहा कि हमें अतीत को अपनाकर, लेकिन उसमें अटके बिना आगे बढ़ने की आवश्यकता है. साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित किए जा रहे साहित्योत्सव के चौथे दिन 22 से अधिक कार्यक्रमों में विभिन्न भारतीय भाषाओं के 140 से ज्यादा लेखकों ने भागीदारी की. इन कार्यक्रमों में पांच बहुभाषी कवि सम्मिलन और चार कथा सम्मिलनों के साथ ही स्वतंत्रता-पूर्व भारतीय साहित्य में ‘राष्ट्र’ की अवधारणा, क्या कामिक्स साहित्य है?, रंगमंच, भारतीय समाज में परिवर्तन के प्रतिबिंब के रूप में, सांस्कृतिक रूप से भिन्न भाषाओं में साहित्यिक कृतियों के अनुवाद में चुनौतियां, प्रवासी लेखन में मातृभूमि आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर परिचर्चा हुई. इस संगोष्ठी के अन्य सत्रों में भारतीय नाटक: उत्कृष्टता की परिभाषा एवं प्राचीन भारतीय साहित्य और भारत में अनुवाद विषयों पर व्यापक पर चर्चाएं हुईं. साहित्योत्सव में उपस्थित रहे कुछ महत्त्वपूर्ण लेखक विद्वानों में बलदेव भाई शर्मा, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, आतमजीत, चंद्रशेखर कंबार, अर्जुन देव चारण, ए कृष्णाराव, सुमन्यु शतपथी, बुद्धिनाथ मिश्र आदि शामिल थे. आमने-सामने कार्यक्रम में असमिया, हिंदी, गुजराती, मलयालम एवं तमिऴ भाषा के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार 2024 विजेताओं के साथ प्रतिष्ठित साहित्यकारों एवं विद्वानों ने बातचीत की. सांस्कृतिक कार्यक्रम के अंतर्गत आज फौजिया दास्तानगो और रीतेश यादव द्वारा दास्तान-ए-महाभारत पेश की गई.