तिरुपति: संस्कृत अलौकिक भाषा है और यह हमारी आध्यात्मिकता की खोज एवं परमात्मा से जुड़ने के प्रयासों में एक पवित्र सेतु के रूप में कार्य करती है. यह बात उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने तिरुपति में राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के तीसरे दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए कही. उन्होंने कहा, ”आज के ऊहापोह भरे दौर में संस्कृत एक अद्वितीय शांति प्रदान करती है. वह आज के संसार से जुड़ने के लिए हमें बौद्धिकता, आध्यात्मिक शांति और स्वयं के साथ एक गहरा संबंध बनाने के लिए प्रेरित करती है.” भारतीय ज्ञान प्रणालियों के पुनरुद्धार और प्रसार में राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों की भूमिका पर बल देते हुए उपराष्ट्रपति ने नवीन पाठ्यक्रम विकसित करने और विषय-परक अनुसंधान को बढ़ावा देने का आह्वान किया, ताकि संस्कृत की समृद्ध विरासत और आधुनिक शैक्षणिक आवश्यकताओं के बीच अंतर को कम किया जा सके. उन्होंने कहा, “संस्कृत जैसी पवित्र भाषा न केवल हमें परमात्मा से जोड़ती है, बल्कि संसार की अधिक समग्र समझ की दिशा में भी हमारा मार्ग प्रशस्त करती है.”

उपराष्ट्रपति धनखड़ ने बहुमूल्य प्राचीन पांडुलिपियों के संरक्षण में डिजिटल प्रौद्योगिकियों के बढ़ते उपयोग की आवश्यकता का भी उल्लेख किया. उन्होंने कहा कि संस्कृत हमारी सांस्कृतिक धरोहर का कोष है, इसलिए इसके संरक्षण और संवर्धन को राष्ट्रीय स्तर पर प्राथमिकता दिया जाना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है. उपराष्ट्रपति ने कहा कि संस्कृत को आज की आवश्यकताओं के अनुसार विकसित किया जाए और इसकी शिक्षा को आसान बनाया जाए. यह देखते हुए कि कोई भी भाषा तभी जीवित रहती है जब उसका उपयोग समाज द्वारा किया जाता है और उसमें साहित्य रचा जाता है, उपराष्‍ट्रपति ने हमारे दैनिक जीवन में संस्कृत के उपयोग को बढ़ाने की आवश्यकता बताई. उपराष्‍ट्रपति ने संस्कृत के समृद्ध और विविध साहित्यिक कोष का उल्लेख किया और कहा कि संस्‍कृत में न केवल धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथ शामिल हैं, बल्कि चिकित्सा, नाटक, संगीत और विज्ञान संबंधी सबके कल्‍याण वाले कार्य भी शामिल हैं. धनखड़ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि इस विस्तार के बावजूद, मुख्यधारा की शिक्षा में संस्कृत का एकीकरण सीमित है, जो अक्सर बाधित होता रहता है. इसका कारण लंबे समय से चली आ रही उपनिवेशवादी मानसिकता है, जो भारतीय ज्ञान प्रणालियों की उपेक्षा करती है.

यह कहते हुए कि संस्कृत का अध्ययन केवल एक अकादमिक खोज नहीं है, उपराष्‍ट्रपति ने इसे आत्म-अन्वेषण और ज्ञानोदय की यात्रा के रूप में वर्णित किया. उन्होंने संस्कृत की विरासत को आगे ले जाने का आह्वान किया और कहा कि संस्‍कृत न केवल शैक्षणिक ज्ञान, बल्कि परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करती है. उन्‍होंने छात्रों का आह्वान किया कि वे इस अमूल्य विरासत का दूत बनें, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि इसकी संपदा भावी पीढ़ियों तक पहुंच सके. इस अवसर पर राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलाधिपति एन गोपालस्वामी, राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर जीएसआर कृष्ण मूर्ति, भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान तिरुपति के निदेशक प्रोफेसर शांतनु भट्टाचार्य, संकाय, विश्‍वविद्यालय कर्मी और छात्र तथा अन्य गणमान्य व्यक्ति भी उपस्थित थे. दीक्षांत समारोह के पूर्व धनखड़ ने पवित्र तिरुमाला मंदिर में दर्शन किये और कहा, “तिरुपति में ही व्यक्ति दिव्यता, आध्यात्मिकता और उदात्तता के सबसे निकट आता है. मंदिर में दर्शन के दौरान मुझे यह अनुभव हुआ. मैंने खुद को धन्य महसूस किया और सभी के लिए आनंद की प्रार्थना की.”